Saturday, 29 June 2019

Gaon - 1.13


1.13

तीखन इल्यिच ने ज़ोर से खाँसकर दरवाज़ा खोला. मेज़ के पीछे, धुँआ छोड़ते लैम्प के पास, जिसका चटका हुआ काँच एक ओर से काले हो रहे कागज़ से चिपकाया गया था, सिर झुकाए, चेहरे पर गीले बाल बिखेरे रसोइन बैठी थी. वह लकड़ी की कंघी से बाल काढ़ रही थी और बालों के बीच से कंघी को रोशनी में देखती जा रही थी. ओस्का, होठों से सिगरेट दबाए ठहाका लगा रहा था, पीछे की ओर झुककर, फूस के बुने हुए जूते हिलाते हुए. भट्ठी के पास, आधे-अँधेरे में लाल-लाल आग दिखाई दे रही थी – यह पाइप था. जब तीखन इल्यिच दरवाज़े को धकेलकर देहलीज़ पर प्रकट हुआ, तो ठहाके एकदम बंद हो गए, पाइप पीता हुआ व्यक्ति सकुचाते हुए अपनी जगह से उठा, उसे मुँह से निकाला और जेब में घुसा दिया...हाँ, झ्मीख! मगर, जैसे सुबह कुछ हुआ ही न हो, ऐसे तीखन इल्यिच जोश से, दोस्ताना अंदाज़ में चीख़ा:
“बच्चों दाना-पानी देना है...”
मवेशीख़ाने में मशाल लेकर घूमते रहे, कड़ी हो चुकी खाद, बिखरी हुई घास-फूस, दाना देने की नाँद, खम्भे प्रकाशित करते हुए, भीमकाय परछाइयाँ डालते हुए, छप्पर के नीचे डंडों पर सो रही मुर्गियों को जगाते हुए. मुर्गियाँ नीचे की ओर उड़ने लगीं, गिरने लगीं और आगे की ओर झुकते हुए, ऊँघते-ऊँघते तितर-बितर भागने लगीं. रोशनी की ओर मुँह घुमाए घोड़ों की बड़ी-बड़ी बैंगनी आँखें अजीब तरह से, शानदार ढंग से चमकते हुए देख रही थीं. साँस छोड़ते समय भाप उठ रही थी, जैसे सब सिगरेट पी रहे हों. और जब तीखन इल्यिच ने लालटेन नीचे करके नज़रें ऊपर उठाईं तो उसने बड़ी प्रसन्नता से आँगन के ऊपर के चौकोर गहरे साफ़ आसमान पर दमकते, रंग-बिरंगे तारे देखे.
बर्फीली ताज़गी से सराबोर उत्तरी हवा झिरी से अन्दर की ओर बह रही थी और छत पर उसकी सूखी सरसराहट सुनाई दे रही थी...शुक्र है तेरा, ख़ुदा, सर्दियाँ आ गईं!”
वहाँ से हटकर और समोवार का हुक्म देकर तीखन इल्यिच लालटेन लिए ठण्डी, गंधाती दुकान में गया, उसने अच्छी किस्म की नमकीन मछली चुनी : चाय से पहले थोड़ा नमकीन लेना बुरा नहीं है, और चाय के समय उसे खाया, पीली-लाल ब्रॅण्डी के कुछ कड़वे-मीठे जाम पिए, प्याले में चाय डाली, जेब से देनिस्का का ख़त निकाला और उसके कीड़े-मकोड़ों के समझने की कोशिश करने लगा.
“देन्या को मिले चालीस रूबल पैसे फेरे चीज़ें समेटीं...”
“चालीस!” तीखन इल्यिच ने सोचा. “आह, तू भूखा, नंगा, आवारा...”
“गया देन्या तूला स्टेशन और उसको लूट लिया, आख़िरी कोपेक तक छीन लिया, सिर छुपाने को जगह नहीं, और उसे ग़म ने दबोच लिया...”
इस बकवास को समझना कठिन और उकताहटभरा काम था, मगर शाम इतनी लम्बी थी, करने को कुछ नहीं था...समोवार जल्दी-जल्दी बज रहा था, मन्द प्रकाश में लैम्प जल रहा था, और इस शाम की इस ख़ामोशी और शान्ति में दुःख था. खिड़कियों के नीचे चौकीदार का डण्डा एक लय में घूम रहा था, बर्फीली हवा में खनखनाती आवाज़ कर रहा था, नृत्य-संगीत जैसी...
“फिर मुझे घर की याद सताने लगी, बाप भी राक्षस...”
“बेवकूफ़ ही तो है, माफ़ करना ख़ुदा!” तीखन इल्यिच ने सोचा. “यह सेरी और राक्षस!”
“जाऊँगा ऊँघते जंगल में ऊँचे से ऊँचा देवदार का पेड़ ढूढूँगा और शकर के तिकोने से रस्सी लेकर उस पर अपनी ज़िन्दगी हमेशा के लिए टाँग दूँगा, नई पतलून में मगर बिन जूतों के...”
“बिन जूतों के तो नहीं?” तीखन इल्यिच ने थकी हुई आँखों के सामने से कागज़ हटाते हुए कहा, “बस, जो सच है, वह सच है...”
ख़त को तसले में डालकर लैम्प की ओर ताकते हुए उसने कुहनियाँ मेज़ पर टिका दीं...अजीब लोग हैं हम! रंग-बिरंगी आत्माएँ! कभी आदमी एकदम कुत्ते जैसा, कभी दुःखी हो जाता है, दयनीय, असहाय लगता है, प्यार जताता है, स्वयम् अपने आप पर रोता है, जैसे कि यह देनिस्का, या स्वयम् वह, तीखन इल्यिच...शीशों पर नमी छा गई, चौकीदार का डण्डा कुछ अच्छी-सी बात कह रहा था, स्पष्ट और सजीवता से, सर्दियों वाले अन्दाज़ में, आह, अगर बच्चे होते! अगर, ख़ैर, होती एक प्रेमिका, कोई अच्छी-सी, इस थुलथुल बुढ़िया के बदले, जिसने सिर्फ किसी राजकुमारी और किसी सच्चरित्र संतान पलिकार्प्रिया, जिसे शहर में पलुकार्प्रिया कहते हैं, की कहानियाँ सुना-सुनाकर उसे बुरी तरह परेशान कर दिया था, हाँ, देर हो चुकी है, बहुत देर...
कुर्ते की सिली हुई कॉलर खोलकर तीखन इल्यिच ने कटु मुस्कान से अपनी गर्दन, गर्दन पर कानों के पीछे बन गए गढ़ों को छुआ...ये गढ़े पहली निशानी हैं बुढ़ापे की, घोड़े जैसा बन जाता है सिर! हाँ, बाकी सब तो इतना बुरा नहीं था. उसने सिर झुकाया, दाढ़ी पर उँगलियाँ फेरीं....और दाढ़ी सफ़ेद है, सूखी, उलझी हुई. नहीं, बस हो चुका, बस हो गया, तीखन इल्यिच!
वह पीता रहा, नशे में झूमता रहा, जबड़ों को कसकर भींचता रहा, आँखें सिकोड़े एकटक देखता रहा स्थिरता से जलती लैम्प की बत्ती को...आप सोचो ज़रा : अपने सगे भाई के पास नहीं जा सकता, सुअर के पिल्ले नहीं छोड़ते, सुअर कहीं के! और अगर छोड़ भी देते, तो ख़ुशी कम ही है. कुज़्मा उसे भाषण देता, होंठ भींचे, पलकें झुकाए दुल्हन खड़ी रहती...आह, सिर्फ इन झुकी हुई पलकों से ही दूर भाग जाता!
दिल में हूक उठा, सिर धुँधला गया...कहाँ सुना था उसने यह गीत?

आई उकताहटभरी शाम,
न जानूँ करूँ क्या,
आया मेरा प्यारा मेहमान,
लगा मुझे वह करने प्यार...

आह, हाँ, लेबेधान में, सराय में. सर्दियों की शाम को लेस बुनने वाली लड़कियाँ बैठकर गाती रहती हैं...बैठती हैं, बुनती हैं और बिना पलकें उठाए, खनखनाती गहरी आवाज़ों में कहती हैं:

चूमता है, भरता है बाँहों में,
बिदा लेता है वह मुझसे...

सिर धुँधला रहा था, कभी यूँ लगता जैसे अभी सब कुछ सामने है, ख़ुशी और आज़ादी, बेफ़िक्री, कभी दिल में निराशा से टीस उठती. कभी वह जोश में आ जाता :
“जेब में पैसा हो, तो चाची भी व्यापार कर ले!:
कभी वह कड़वाहट से लैम्प की ओर देखता और भाई की कल्पना करके बड़बड़ाता :
“मास्टर! सीख देने वाला! मेहेरबान फिलारेट...आवारा, चीथड़े पहना शैतान!”
उसने शराब की बोतल ख़त्म की, इतनी सिगरेटें पीं, कि अँधेरा छा गया...लड़खड़ाते कदमों से, ऊबड़-खाबड़ फ़र्श पर चलते हुए, सिर्फ एक कोट पहने वह अँधेरी ड्योढ़ी में आया, हवा की ज़बर्दस्त ताज़गी को, घास और कुत्ते की ख़ुशबू को महसूस करता रहा, दो हरी बत्तियों को देखा जो देहलीज़ पर टिमटिमा रही थीं...
“बुयान!” उसने आवाज़ दी.
पूरी ताकत से उसने बुयान के सिर पर जूता मारा और देहलीज़ पर पेशाब करने लगा.
सितारों की रोशनी में धीरे-धीरे काली हो रही धरती पर मौत का-सा सन्नाटा छाया था. रंग-बिरंगे सितारों के झुण्ड चमक रहे थे. झुटपुटे में डूबता हुआ मुख्य मार्ग मरियल-सा सफ़ेद लग रहा था. दूर एक मूक, जैसे धरती के नीचे से, क्रमशः तेज़ होती हुई गड़गड़ाहट सुनाई दी जो अचानक बाहर फूट पड़ी और चारों दिशाएँ गूँज उठीं : बिजली की रोशनी से आलोकित खिड़कियों की कतार के सफ़ेद रंग से चमकती, उड़ती हुई चुडैल के, नीचे से लाल रंग से चमकते धुँए जैसे बालों को बिखेरे मुख्यमार्ग को पार करती हुई दक्षिण-पूर्व एक्सप्रेस गुज़री.
“यह दुर्नोव्का के निकट से जा रही है.” तीखन इल्यिच ने हिचकियाँ लेते हुए कमरे में वापस लौटते हुए कहा.
ऊँघती हुई रसोइन टिमटिमाते लैम्प की मद्धिम रोशनी से प्रकाशित, तम्बाकू की दुर्गन्ध से भरे कमरे में चिकनाई और धुँए से काले हो चुके कपड़े से पकड़कर चिकने, गन्दे बर्तन में गोभी का शोरवा लाई. तीखन इल्यिच ने उस पर तिरछी नज़र डाली और बोला:
“फ़ौरन बाहर भाग जा!”
रसोइन मुड़ी, उसने दरवाज़े को पैर से धक्का दिया और छिप गई.
बिस्तर में दुबकने का मन हो रहा था, मगर वह बड़ी देर तक बैठा रहा, मायूसी से मेज़ की ओर देखते हुए.

Gaon - 1.12



1.12

“अच्छा सुन,” उसने शुरुआत की. बात यह है, कि यह सब राग आलापना अब तू छोड़ दे. छोटा नहीं है, बेवकूफ़! वापस चल, दुर्नोव्का, काम करने का समय आ गया है. वरना तो तुझे देखकर उल्टी आती है. मेरे यहाँ जागीर के नौकर बेहतर रहते हैं, उसने जागीर के कुत्तों की कल्पना करके कहा, “मदद कर दूँगा, ऐसा ही होगा...शुरू में. कुछ माल के लिए, कुछ औज़ारों के लिए...और तू ख़ुद पेट भर खाएगा और बाप को भी थोड़ा-बहुत देगा...”
यह किस ओर इशारा कर रहा है?’ देनिस्का ने सोचा. तीखन इल्यिच ने फ़ैसला कर लिया और अपनी बात ख़त्म की:
“हाँ, और शादी करने का वक्त भी आ गया है.”
“ऐSSसा है!” देनिस्का ने कहा और इत्मीनान से सिगरेट लपेटने लगा.
“क्या करें,” इत्मीनान से और कुछ अफ़सोस के साथ उसने पलकें उठाए बगैर कहा, “मिन्नत तो मैं करूँगा नहीं. शादी कर सकता हूँ. रण्डियों के पास जाना तो बुरी बात है.”
“वही, वही तो बात है.” तीखन इल्यिच ने ज़ोर देकर कहा. “सिर्फ, भाई, इतना याद रखना, शादी भी अक्लमन्दी से करनी चाहिए. उन्हें, बच्चों को तो, पैसा हो, तो अच्छी तरह पाल सकते हैं.”
देनिस्का ने ठहाका लगाया.
“हँसता क्यों है?”
“नहीं तो क्या करूँ? पालना! जैसे मुर्गियों को या सुअरों को?
“खाने को तो मुर्गियों और सुअरों से कम नहीं माँगते!”
“और किसके साथ?” दयनीय मुस्कुराहट से देनिस्का ने पूछा.
“हाँ, किसके साथ? हाँ, जिससे करना चाहो!”
“कहीं दुल्हन के साथ तो नहीं?”
तीखन इल्यिच का रंग गहरा लाल हो गया.
“बेवकूफ़! मगर दुल्हन किस बात में कम है? लुगाई ख़ामोश तबियत की, कामकाज वाली...”
देनिस्का सूटकेस पर बनी टीन की चादर वाली टोपी पर उँगली घुमाते हुए चुप रहा. फिर बेवकूफ़ों के से अन्दाज़ में बोला:
“वे नौजवान लड़कियाँ तो बहुत हैं,” उसने बात को बढ़ाते हुए कहा, “मालूम नहीं, तुम किसके बारे में बोल रहे हो...उसके बारे में तो नहीं, जिसके साथ तुम रहते थे?”
मगर अब तीखन इल्यिच पूरी तरह सँभल चुका था.
“मैं रहता था या नहीं, यह तेरे जैसे, सुअर जैसी अक्ल वाले के सोचने की बात नहीं है,” उसने इतनी तेज़ी से और प्रभावशाली तरीके से कहा कि देनिस्का आज्ञाकारिता से बुदबुदाया:
“हाँ, मेरे लिए तो इज़्ज़त की बात है...मैं तो, वह, यूँ ही...बातों-बातों में...”
“तो, मतलब यह कि बेकार में बकवास न कर. आदमी बना दूँगा. समझा? दहेज़ दूँगा...समझा?”
देनिस्का सोच में डूब गया.
“अभी तूला जाऊँगा...” उसने शुरुआत की.
“मुर्गे को मिला मोती का दाना! अब तुझे तूला क्यों चाहिए?”
“घर में भी भूखा रहता था...”
तीखन इल्यिच ने कोट के अन्दर वाली जेब में हाथ डाला, जैसे कि देनिस्का को बीस का सिक्का देने ही वाला था. मगर, रुक गया, पैसे फेंकना बेवकूफ़ी है, ऊपर से ये चलता-पुर्ज़ा भाँप जाएगा कि उसे ख़रीदा जा रहा है, उसने यूँ दिखाया जैसे कुछ ढूँढ़ रहा हो.
“ओह, सिगरेट तो भूल ही गया. दे, एक बना लूँ.”
देनिस्का ने उसे तम्बाकू का बटुआ दिया. ड्योढ़ी पर बत्ती जला दी गई थी. उसकी धुँधली रोशनी में ज़ोर से बटुए पर बड़े अक्षरों में सफ़ेद धागे से काढ़ी हुई इबारत पढ़ी :
जिसे प्यार करूँ, उसे नज़र करूँ,
दिल से प्यार करूँ, बटुआ नज़र करूँ.
“बहुत अच्छे,” उसने पढ़ने के बाद कहा.
देनिस्का ने शरमाकर नज़रें झुका लीं.
“मतलब, पहले ही कोई छोरी है?”
“क्या वे, कुत्तियाँ, कम घूमती हैं!” देनिस्का ने बेफ़िक्री से जवाब दिया. “और शादी से मैं इनकार नहीं करता. बड़े दिन तक वापस लौटूँगा और फ़िर ख़ुदा के फ़ज़ल से...”
बगीचे के पीछे से खड़खड़ करती गाड़ी ड्योढ़ी के पास आई, कीचड़ से पूरी तरह लथपथ, सामने शहतीर पर किसान और बीच में घास पर बैठा हुआ उल्यानोव्स्क का पादरी.
“चली गई?” नए जूते वाला पैर घास से बाहर निकालते हुए पादरी चीख़ा.
उसके लाल-भूरे, झबरे सिर का हर बाल उद्दाम लटें बना रहा था, टोपी माथे पर सरक गई थी, हवा और परेशानी के कारण चेहरा लाल हो गया था. “क्या रेल?” तीखन इल्यिच ने पूछा, “नहीं, अभी आई ही नहीं है.”
“आहा! ओह, शुक्र है ख़ुदा का!” ख़ुशी से पादरी चहका और फिर भी गाड़ी से बाहर कूदकर दरवाज़े की ओर तीर की तरह भागा.
“अच्छा, यही सही,” तीखन इल्यिच ने कहा. “ऐसा ही हो, बड़े दिन तक के लिए बिदा!”
स्टेशन पर नम कोटों की, समोवार की, नसवार की, केरोसीन की गन्ध थी, सिगरेटें इतनी पी गई थीं, कि गले में ख़राश हो रही थी. धुएँ, धुँधले अंधेरे, नमी और ठण्ड में बत्तियाँ मुश्किल से चमक रही थीं. दरवाज़ा चरमरा कर खुलता और धड़ाम् से बन्द होता, हाथों में चाबुक लिए किसान भीड़ में चिल्ला रहे थे, ये गाड़ीवान थे, उल्यानोव्का के, जो कभी-कभी पूरे हफ़्ते तक सवारी का इंतज़ार करते. उनके बीच भौंहे ऊपर किए, हैट पहने, टोपी जड़ा कोट पहने यहूदी – गेहूँ का व्यापारी चल रहा था. काउँटर के पास मज़दूर किसी ज़मीन्दार की बरसाती कपड़ा मढ़ी सूटकेसें और टोकरियाँ रख रहे थे, मज़दूरों पर स्टेशन-मास्टर के सहायक का कर्तव्य निभा रहा – जवान, छोटे-छोटे पैरों वाला, बाँका, बड़े सिरवाला, घुँघराली, कज़ाकों वाले अंदाज़ में टोपी के नीचे दाहिनी कनपटी पर झूलती फूली-फूली पीली लट वाला तार बाबू चीख़ रहा था, गन्दे फ़र्श पर बैठा मेंढ़क जैसे धब्बों वाला शिकारी कुत्ता दयनीय आँख़ों से थरथर काँप रहा था.
मज़दूरों के बीच से रास्ता बनाता हुआ तीखन इल्यिच जलपान-गृह के काउण्टर पर पहुँचा, उसने जलपान-गृह वाले से कुछ देर बातचीत की. फिर वापस घर की ओर चल पड़ा. ड्योढ़ी पर देनिस्का अभी तक खड़ा था.
“मैं आपसे यह पूछना चाहता था, तीखन इल्यिच,” उसने हमेशा से भी ज़्यादा सकुचाते हुए कहा.
“अब और क्या है?” गुस्से से तीखन इल्यिच ने पूछा, “पैसे? नहीं दूँगा.”
“नहीं, कहाँ से पैसे! मैं ख़त पढ़ने के लिए कह रहा था.”
“ख़त? किसे?”
“आपको. बहुत दिनों से देना चाह रहा था, मगर हिम्मत ही नहीं हुई.”
“मगर किस बारे में?”
“यूँ ही...अपनी ज़िन्दगी के बारे में लिखा था...” तीखन इल्यिच ने देनिस्का के हाथों से तह किया हुआ कागज़ लिया, उसे अपनी जेब में ठूँसा और कड़े, जम गए कीचड़ से होता हुआ घर की ओर चल पड़ा.
अब उसमें हिम्मत आ गई थी. वह काम करना चाह रहा था, ख़ुशी से सोचा, कि मवेशियों को दाना-पानी देना है. अफ़सोस की बात है – गुस्से में आ गया. झ्मीख़ को भगा दिया, अब ख़ुद ही रात भर जागना होगा. ओस्का पर भरोसा नहीं किया जा सकता. शायद वह अब तक सो भी गया हो या फ़िर रसोइन के साथ बैठकर मालिक को गालियाँ दे रहा होगा...झोंपड़ी की रोशनी वाली खिड़कियों के पास से गुज़रते हुए तीखन इल्यिच बरामदे में छिप गया और उसने दरवाज़े पर कान लगा दिया. दरवाज़े के पीछे से हँसने की और फिर ओस्का की आवाज़ सुनाई दी:
“और एक किस्सा हुआ. गाँव में एक किसान रहता था, ग़रीन, बहुत ग़रीब, और उससे ज़्यादा ग़रीब पूरे गाँव में और कोई न था. और, निकला एक बार, भाइयों मेरे, यही किसान खेत जोतने. और उसके पीछे-पीछे चला रस्सी से बंधा हुआ धब्बेदार कुत्ता. किसान जोतता, और कुत्ता खेत में कुछ सूँघता और खोदता-सा चलता. खोदा, खोदा, खोदा, और कैसी आवाज़ आई! कैसी अजब बात हुई? किसान उसकी ओर झुका, गढ़े में देखा, और वहाँ – लोहे का बर्तन....”
“बर्तSS? रसोइन ने पूछा.
“अब तू सुन भी! बर्तन तो बर्तन, और उस लोहे के बर्तन में था सोना! जाने-अनजाने...तो अमीर हो गया किसान....”
“आह, बकवास!” तीखन इल्यिच ने सोचा और उत्सुकता से सुनने लगा कि किसान का आगे क्या होगा.
“किसान अमीर हो गया, बिगड़ गया, जैसे कोई सौदागर...”
“हमारे तूगानोगी (सख़्त, सीधे पैरों वाला जिसे चलने में मुश्किल होती है – अनु.) से ज़्यादा बुरा तो नहीं होगा!” रसोइन ने कहा.
तीखन इल्यिच मुस्कुराया : वह जानता था कि उसे काफ़ी अर्से से “तूगानोगी” नाम से पुकारते हैं...बिना उपनाम से कोई आदमी नहीं है.
और ओस्का कहता रहा:
“उससे भी ज़्यादा अमीर...हाँ...और कुत्ता तो एक दिन मर गया. अब क्या करें? ताकत नहीं है – कुत्ते का गम भी है, उसे इज़्ज़त-आबरू के साथ दफ़नाना होगा...”
हँसी का ठहाका फूटा. ख़ुद कहानी कहने वाला भी ठहाका लगा रहा था, और कोई और भी – बूढ़ी साँसों के साथ.
“कहीं झ्मीख तो नहीं?” तीखन इल्यिच का दिल बल्लियों उछलने लगा. “ओह, ख़ुदा का शुक्र है! कहा ही था मैंने वाSSपस आSSगा!
“किसान गया पादरी के पास,” ओस्का ने आगे कहा, “पादरी के पास गया : ऐसा है, वैसा है, मालिक, कुत्ता मर गया, दफ़नाना पड़ेगा...”
रसोइन अपने आप पर काबू न रख पाई और ख़ुशी से चीख़ी:
“ऊSS, तेरी तो कोई हद ही नहीं है!”
“अरे, पूरी बात तो कहने दे!” ओस्का भी चीख़ा और फिर से किस्सागोई के सुर में सुनाने लगा, कभी पादरी की, तो कभी किसान की नकल करते हुए:
“ऐसा है, वैसा है, मालिक, कुत्ते को दफ़नाना पड़ेगा.” ऐसा पैर पटकने लगा पादरी : “कैसा दफ़नाना? कुत्ते को कब्रिस्तान में दफ़नाना! मैं तुझे जेल भेज दूँगा और मैं तेरे पैरों में बेड़ियाँ डलवा दूँगा.” “मालिक, ये कोई सीधा-सादा कुत्ता नहीं है, जब वह मर रहा था, आपके लिए पाँच सौ कलदार छोड़ गया है.” कैसे उछला पादरी अपनी जगह से : “बेवकूफ़! क्या मैं तुझे इसलिए गाली दे रहा हूँ, कि किसे दफ़नाना है? इसलिए डाँट रहा हूँ, कि कहाँ दफ़नाना है? उसे गिरजे के आँगन में दफ़नाना चाहिए.”

Kastryk

कस्त्र्यूक लेखक : इवान बूनिन अनुवाद : आ. चारुमति रामदास 1 खेतों वाले रास्ते के निकट बनी अंतिम झोंपड़ी के पीछे से अचानक ज़ालेस्नी...