1.6
मन में भयानक विचार आने
लगे, ऐसा इंतज़ाम करना चाहिए कि रोद्का किसी छप्पर या
मिट्टी के ढेर के नीचे दब जाए...मगर एक महीना बीत गया, दूसरा
भी बीत गया और उम्मीद, वह उम्मीद जिसने उसे इन ख़यालों से मदहोश
कर दिया था, बड़ी क्रूरता से उसे धोखा दे गई : दुल्हन को गर्भ
ही नहीं ठहरा! इसके बाद आग से खेलते रहने की क्या वजह बची? रोद्का
से पीछा छुड़ाना ज़रूरी था, जितनी जल्दी हो, उसे भगाना था.
मगर उसके बदले रखे किसको?
मौका भी हाथ आ गया.
अप्रत्याशित रूप से तीखन इल्यिच ने भाई से समझौता कर लिया और उसे दुर्नोव्का का
बन्दोबस्त संभालने के लिए मना लिया.
शहर में किसी परिचित से
उसे पता चला कि कुज़्मा ने काफ़ी अर्से तक ज़मीन्दार कसात्किन के यहाँ दफ़्तर में काम
किया है और, सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह
रही कि वह ‘लेखक’ बन गया है. हाँ,
उसकी कविताओं की पूरी किताब छप गई है और पीछे की ज़िल्द पर लिखा है :
“स्टॉक लेखक के पास”.
“ये...बा SS
त है!” ख़बर सुनकर तीखन इल्यिच बोला. वह कुज़्मा है, कोई बात नहीं! और पूछने की इजाज़त दीजिए, क्या ऐसे ही
छपा है : कुज़्मा क्रासव की रचनाएँ?”
“सच,
एकदम सच”, परिचित ने जवाब दिया. उसे हालाँकि
पूरा यकीन था, शहर में कई और लोगों जैसा, कि कुज़्मा अपनी कविताएँ ‘उड़ाता है’ किताबों से, पत्रिकाओं से.
तब तीखन इल्यिच ने अपनी
जगह से उठे बिना दायेव के शराबखाने की मेज़ पर ही भाई को दृढ़ और छोटा-सा ख़त लिखा :
“अब बूढ़ों को सुलह कर लेनी चाहिए, पश्चात्ताप कर
लेना चाहिए.” और दूसरे ही दिन दायेव के यहाँ सुलह और कामकाज सम्बन्धी बातचीत के
लिए बुलाया.
सुबह का समय था,
शराबख़ाना अभी खाली था. धूलभरी खिड़कियों में सूरज चमक रहा था,
नम लाल मेज़पोशों से ढँकी मेज़ों, अभी-अभी चोकर
से धोए गए, अस्तबल की गंध वाले फर्श को, सफ़ेद कमीज़ों और सफ़ेद पतलूनों वाले बेयरों को आलोकित कर रहा था. पिंजरे में
कृत्रिम-सी, चाभी भरी-सी कैनरी हर सुर में गाए चली जा रही
थी. तीखन इल्यिच घबराहट लिए संजीदा चेहरे से मेज़ पर जा बैठा और जैसे ही उसने दो
प्याली चाय का ऑर्डर दिया, उसके कान के ऊपर पूर्व परिचित
स्वर सुनाई दिया:
“तो,
नमस्ते!”
कुज़्मा कद में उससे छोटा,
हड़ीला, सूखा था. उसका चेहरा बड़ा, दुबला, उभरी हड्डियों वाला था, भौंहे सफ़ेद, त्यौरियाँ चढ़ाती, आँखें
छोटी, कुछ हरी-सी थीं. उसने शुरुआत सीधे ढंग से नहीं की.
“सबसे पहले मैं तुझे बताऊँगा
तीखन इल्यिच,” जैसे ही तीखन इल्यिच ने उसके लिए
चाय डाली, उसने शुरुआत की, “बताऊँगा
तुझे कि मैं कौन हूँ, जिससे तुझे पता चले...” वह मुस्कुराया,
“कि तू किससे नाता जोड़ने चला है.”
और वह बड़े स्पष्ट उच्चारण
के साथ शब्दों को कहता, भौंहे ऊपर उठाता, और बातें करते हुए कोट की ऊपरी बटन को लगातार खोलता और बन्द करता. और,
बटन बन्द करते हुए वह आगे बोला :
“मैं,
जानते हो, अराजकतावादी हूँ...”
तीखन इल्यिच की भृकुटी तन
गई.
“डरो मत. राजनीति से मुझे
कोई मतलब नहीं. और, सोचने के लिए कोई किसी को
हुकुम नहीं दे सकता. और इसमें तेरा नुकसान कुछ भी नहीं है. काम अच्छी तरह से
सँभालूँगा, मगर सीधे-सीधे कह देता हूँ – चमड़ी नहीं
उधेडूँगा.”
“अब तो वह ज़माना भी नहीं
रहा,” तीखन इल्यिच ने गहरी साँस ली.
“नहीं,
ज़माना तो अब भी वही है. अभी भी – उधेड़ी जा सकती है. मगर नहीं,
कोई फ़ायदा नहीं है. काम सँभालूँगा, खाली समय
अपनी तरक्की के लिए दूँगा...पढ़ने के लिए, मेरा मतलब है.”
“ओह,
याद रख : ज़्यादा पढ़ लेगा – तो जेब खाली रखेगा! सिर झटककर, होठों के किनारों को खींचते हुए तीखन इल्यिच बोला, “और,
मेहेरबानी कर, यह हमारा काम नहीं है.”
“मगर मैं ऐसा नहीं सोचता,”
कुज़्मा ने प्रतिवाद किया. “मैं, भाई, तुझसे कैसे कहूँ, अजीब-सी रूसी किस्म का हूँ.”
“मैं ख़ुद भी रूसी आदमी हूँ,”
तीखन इल्यिच ने पुश्ती जोड़ी.
“मगर दूसरी तरह का. यह तो
नहीं कहना चाहता कि मैं तुमसे अच्छा हूँ, मगर –
दूसरी तरह का हूँ. तू, जैसे, देख रहा
हूँ, इस बात पर फ़ख्र करता है कि तू रूसी है, और मैं, भाई, कहीं से भी,
रत्ती भर भी ‘स्ल्याव्यानोफिल” नहीं हूँ.
ज़्यादा डींग हाँकना ठीक नहीं है, मगर एक बात कहता हूँ : शेख़ी
मत मारो तुम लोग, ख़ुदा के लिए, कि तुम
रूसी हो. जंगली लोग हैं हम!”
तीखन इल्यिच,
त्यौरियाँ चढ़ाए, उँगलियों से मेज़ बजा रहा था.
“ये तो,
सही बात है,” उसने कहा, “जंगली लोग हैं. शैतान.”
“बस,
वही तो बात है. मैं, कह सकता हूँ, कि काफ़ी दुनिया घूम चुका हूँ, मगर क्या? कहीं भी इससे ज़्यादा ऊबाऊ और आलसी किस्म नहीं देखी. और जो आलसी नहीं है,”
कुज़्मा ने भाई की ओर कनखियों से देखते हुए कहा, “वह भी किसी काम का नहीं. रिश्ते तोड़ लेता ह, अपना
घोंसला भर लेता है, और फ़ायदा क्या है इससे?”
“ऐसे कैसे – फ़ायदा क्या है?”
तीखन इल्यिच ने पूछा.
“ऐसा ही तो है. घोंसले को
भी बनाना चाहिए, अच्छी तरह सोच-समझकर. बनाऊँगा,
और आदमी की तरह रहूँगा. इस तरह से, हाँ,
बस ऐसे.”
और कुज़्मा ने उँगली से
अपने सीने और माथे पर ठकठक किया.
“हमें,
भाई, ज़ाहिर है, इसकी कोई
ज़रूरत नहीं है,” तीखन इल्यिच ने कहा, “गाँव
में रहो, गोभी का शोरवा पियो, फूस के
बने स्लीपर पहनो!”
“स्लीपर!” ज़हरीले स्वर में
कुज़्मा ने कहा, “हज़ार साल से ऊपर हो गए उन्हें
घसीटते हुए, उन पर तीन बार शैतान की मार पड़े! और कुसूर किसका
है? तातारों ने, जानते हो, हमें दबाकर रखा! हम, देखो, लोग
नए हैं! मगर, शायद वहाँ, यूरोप में भी,
काफ़ी दबाकर रखा गया – मंगोलों ने और न जाने किस-किस ने. शायद,
जर्मन भी तो हमसे पुराने नहीं हैं...मगर, यह
एक ख़ास तरह की बहस है!”
“सही है,”
तीखन इल्यिच ने कहा, “चलो, बेहतर है कुछ काम-काज की बातें करें.”
“चर्च में मैं जाता नहीं
हूँ...”
“मतलब,
तू काफ़िर है?” तीखन इल्यिच ने पूछा और सोचने लगा,
“मैं तो गया! लगता है दुर्नोव्का से हाथ धोना ही होगा.”
“काफ़िर जैसा ही,”
कुज़्मा मुस्कुराया, “मगर, क्या तुम भी जाते हो? जब तक डर न हो, और ज़रूरत न हो, वर्ना बिल्कुल भूल ही जाते.”
“मगर,
न तो मैं ऐसा पहला इन्सान हूँ, न ही आख़िरी,”
तीखन इल्यिच ने नाक-भौंह चढ़ाते हुए प्रतिवाद किया, “सभी गुनहगार हैं. मगर, कहा भी गया है : एक आह के बदले सब माफ हो जाता है.”
कुज़्मा ने सिर हिलाया.
“आम बात कह रहे हो,”
उसने सख़्ती से कहा. “मगर तुम थोड़ा ठहरकर ज़रा सोचो : ऐसा कैसे हो
सकता है? जिया, जिया, सुअर की तरह पूरी ज़िन्दगी जिया, एक आह भर ली और मानो
सब हट गया. कोई तुक है इसमें कि नहीं?”
बातचीत बोझिल हो चली थी.
“यह भी सच है,” चमकती आँखों से मेज़ की ओर देखते
हुए तीखन इल्यिच ने सोचा. मगर, हमेशा की तरह, चिन्तन करने से, और भगवान के बारे में, जीवन के बारे में बातचीत से पीछा छुड़ाने की इच्छा हुई, और उसने जो ज़ुबान पर आया वही कह दिया:
“मैं तो जन्नत में जाना
पसन्द करता, मगर गुनाह वहाँ जाने न देंगे.”
“बस,बस, बस यही!” कुज़्मा ने उँगलियों से मेज़ ठकठकाते हुए
उसकी बात की पुष्टि की. “हमारी पसन्दीदा आदत, हमारे विनाश की
निशानी ; कहते हैं – एक, करते हैं –
कुछ ओर! रूसी आदत है, भाई : सुअर की तरह जीना बुरी बात है,
मगर फिर भी सुअर ही की तरह जीता हूँ और जीता रहूँगा! ख़ैर, अब काम की बात करो...”
चिड़िया ख़ामोश हो गई थी.
शराबखाने में लोग आने लगे थे. अब बाज़ार से, किसी
दुकान से बटेर की स्पष्ट और खनखनाती आवाज़ सुनाई दे रही थी. और, जब तक कारोबारी बातचीत चलती रही, कुज़्मा बड़े ध्यान
से सुनता रहा और बीच-बीच में दबी ज़ुबान से जोड़ देता : “बहुत अच्छे!” और बातचीत
ख़त्म होने पर मेज़ पर हाथ मारकर जोश में बोला :
“तो,
मतलब, ऐसा है, बार-बार
दुहराने की ज़रूरत नहीं है,” और कोट की बगलवाली जेब में हाथ
डालकर उसने कागज़ों और चिटों का पूरा बण्डल बाहर निकाला, उनके
बीच से संगमरमरी-स्लेटी रंग की जिल्द वाली छोटी-सी किताब ढूँढ़कर निकाली और उसे भाई
के सामने रख दिया.
“ये लो!” उसने कहा,
“तुम्हारी विनती और अपनी कमज़ोरी के आगे सिर झुकाता हूँ. किताब बुरी
है, नज़्में बेसोची-समझी हैं, पुरानी
हैं...मगर क्या किया जाए! लो, ले लो, और
छिपा दो.”
और फिर से तीखन इल्यिच
परेशान हो गया कि उसका भाई लेखक है, कि इस
संगमरमरी-स्लेटी जिल्द पर छपा है – “के.ई. क्रासव की
कविताएँ” उसने किताब को हाथ में लेकर उसे उलट-पुलट कर देखा और डरते-डरते बोला :
“”और तुम कुछ पढ़ ही
देते...हाँ? मेहेरबानी करके तीन-चार नज़्में पढ़ो
न!”
सिर झुकाकर,
चश्मा पहनकर, किताब को नज़रों से काफ़ी दूर
पकड़कर, चश्मे से उस पर कड़ी नज़र डालकर, कुज़्मा
ने वह पढ़ना शुरू किया, जो अक्सर स्वयं-शिक्षित लोग पढ़ा करते
हैं : कल्त्सोव की, निकीतिन की नकल, किस्मत
और अभावों का रोना, अस्त होती किरणों और बुरे मौसम को चुनौती.
मगर गालों की क्षीण हड्डियों पर गुलाबी धब्बे उभर आए, आवाज़
बीच-बीच में काँप रही थी. आँखें तो तीखन इल्यिच की भी चमक रही थीं. यह महत्वपूर्ण
नहीं था कि कविताएँ अच्छी थीं या बेकार थीं – महत्वपूर्ण यह था कि उन्हें रचा था
उसके सगे भाई ने, सीधे-सादे आदमी ने, जिससे
तम्बाकू और पुराने जूतों की गन्ध आती थी...
“और हमारा, कुज़्मा इल्यिच,” जब कुज़्मा चुप हो गया और चश्मा
उतारकर उसने आँखें नीची कर लीं, तब उसने कहा, “ हमारा तो बस एक ही गीत है...”
और अप्रियता से,
कड़वाहट से उसने होंठ भींचे,
“हमारा तो बस एक ही गीत है
: क्या कीमत है?”
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