1.4
रोव्नोए के पीछे रास्ता
जाता था ज़ई की कतारों के बीच से, यहाँ भी फ़सल
दुबली-पतली, कमज़ोर और गहरे नीले फूलों से लदी थी...और
दुर्नोवो के निकट वाले वीसेल्की में विलो वृक्षों के ऊबड़-खाबड़ कोटर पर काले बादलों
जैसे पहाड़ी कौओं के झुण्ड बैठे थे, अपनी सुनहरी चोंचे खोले,
न जाने क्यों उन्हें आग पसन्द है : वीसेल्की का तो बस सिर्फ नाम ही
बचा है – कचरे के ढेर में झोंपड़ियों के काले अवशेष. कचरे का ढेर दूधिया-नीला धुँआ
छोड़ रहा था, धुएँ की दमघोंटू बदबू आ रही थी…और आग लगने का ख़याल बिजली की तरह तीखन इल्यिच को घोंप गया. ‘बदकिस्मती!’ उसने पीला पड़ते हुए सोचा. उसकी तो किसी
भी चीज़ का बीमा नहीं है, सब कुछ घण्टे भर में ही ख़त्म हो
जाएगा...
सन्त पीटर के इस लेण्ट के
बाद से, मेले की अविस्मरणीय यात्रा के बाद,
तीखन इल्यिच ने पीना शुरू कर दिया और अक्सर पीने लगा, धुत् होने तक तो नहीं, मगर चेहरा काफ़ी लाल होने तक.
मगर इससे उसके कामकाज पर कोई असर नहीं हुआ, उसके अनुसार,
उसके स्वास्थ्य पर भी असर नहीं हुआ. “वोद्का खून साफ़ कर देती है,”
वह कहता. अपनी ज़िंदगी को वह अब भी यातनापूर्ण सज़ा, फाँसी का फ़न्दा, सोने का पिंजरा ही कहा करता. मगर वह
अपनी राह पर अधिकाधिक आत्मविश्वास से चल रहा था, और कई साल
इतनी एकसारता से बीत गए, मानो कामकाज का एक दिन बीता हो. और
नई महत्वपूर्ण घटनाएँ, जिनके बारे में किसी ने कल्पना तक
नहीं की थी, वे थीं जापान के साथ युद्ध और क्रान्ति.
युद्ध के बारे में बातचीत
आरम्भ हुई, ज़ाहिर है, शेखियों
से. “कज़ाक पीली केंचुल जल्दी ही डाल देगा, भाई!” मगर जल्द ही
दूसरा सुर सुनाई देने लगा:
“अपनी ज़मीन कहाँ रखोगे?”
कठोर कारोबारी सुर में तीखन इल्यिच भी बोलने लगा. “यह लड़ाई नहीं,
बस सीधे-सीधे पागलपन है!”
और रूसी सेना के विनाश की
भयानक ख़बरें उसे एक शैतानी ख़ुशी से भर देतीं. “ऊह, अच्छा
हुआ. उनके साथ ऐसा ही होना चाहिए, उनकी माँ के साथ भी!”
क्रान्ति ने भी उसे पहले
तो ख़ुश ही किया, हत्याओं ने उसमें जोश भर दिया:
“कैसे मारा सीधे इस
मिनिस्टर को ही, आँत के एकदम नीचे,” कभी-कभी तीखन इल्यिच जोश में भरकर कहता, “कैसे मारा –
उसका नामोनिशान तक नहीं बचा!”
मगर जैसे ही ज़मीनें छीनने
की बात चली, उसके भीतर कटुता की भावना जाग उठी.
“ये सब यहूदी कर रहे हैं! सभी यहूदी, और साथ में वे लम्बे
बालों वाले – विद्यार्थी!” और कुछ समझ में नहीं आ रहा था : सभी कह रहे हैं –
क्रान्ति, क्रान्ति, और देखो तो चारों
ओर, सब कुछ पहले जैसा ही है, रोज़मर्रा
जैसा ही : सूरज चमक रहा है, खेत में जई फूल रही है, गाड़ियाँ स्टेशन की ओर जा रही हैं...अपनी ख़ामोशी में, अपनी घुमा-फिराकर की गई बातचीत में अबूझ थे लोग – उन्हें समझ पाना असम्भव
था.
“रहस्यमय हो गए हैं लोग!
बिल्कुल आतंकवादी, ऐसे रहस्यमय!” तीखन इल्यिच कहता.
और ‘यहूदियों’ के बारे में भूलकर आगे कहता :
“मान लो,
यह राग आलापना बिल्कुल चालाकीभरा नहीं है. सरकार बदलना और ज़मीन पर
बराबर बँटवारा - यह तो छोटा बच्चा भी समझ
सकता है. और, मतलब, मामला साफ़ है कि किस पर गुस्सा उतार रहे हैं लोग. मगर वे, ज़ाहिर है, ख़ामोश हैं. और ज़रूरी है, मतलब नज़र रखना और ऐसा कुछ करना कि वे चुप ही रहें. उन्हें मौका ही नहीं
देना चाहिए! अगर बात नहीं तो : कामयाबी महसूस करेंगे, पूँछ
के नीचे पेटी पकड़ लेंगे – टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे.”
जब वह पढ़ता या सुनता कि
ज़मीन सिर्फ उन्हीं की छीनेंगे जिनके पास पाँच सौ देस्यातिना (एक देस्यातिना =
1.09 हेक्टेयर – अनु.) से अधिक है, तो वह भी
विद्रोही हो उठता. किसानों से बहस में उलझ जाता. ऐसा भी होता, कि उसकी दुकान के पास किसान खड़ा है और कह रहा है :
“नहीं,
ऐसा तू, इल्यिच, न कह.
इन्साफ़ की बात करो तो उसे छीना जा सकता है. और वैसे – नहीं, अच्छी
बात नहीं...”
गर्मी है,
चीड़ की लकड़ी की ख़ुशबू आ रही है, जिसे घर के
सामने, खलिहान के पास डाल दिया गया था. पेड़ों के पीछे और
स्टेशन की इमारतों के पीछे मालगाड़ी के गरम इंजन के भर्राने और भाप छोड़ने की आवाज़ आ
रही थी. बगैर टोपी के खड़ा है, आँखें सिकोड़ते हुए और चालाकी
से मुस्कुराते हुए, तीखन इल्यिच. मुस्कुराता है और जवाब देता
है :
“ऐसा है! और अगर वह
कामकाजी न निकला, आलसी,
निकम्मा हो तो?”
“कौन?
मालिक? तो यह अलग बात है. उसके पास से तो पूरी
की पूरी छीन लेना भी गुनाह नहीं है.”
“बस,
बस, यही बात है!”
मगर एक और ख़बर आई – पाँच
सौ से कम वाले के पास से भी ली जाएगी! और दिल पर फ़ौरन एक बदहवासी-सी छा गई,
बाल की खाल निकालने के आदत पड़ गई. घर में हो रही हर चीज़ घृणित लगने
लगी.
ईगोर्का,
नौकर, दुकान से आटे की बोरियाँ बाहर ला रहा
था. उसने उन्हें झटकना शुरू किया. पच्चड़ की शकल का सिर, बाल
रूखे और घने – “और ये इतने घने क्यों होते हैं बेवकूफ़ों के?” माथा धँसा हुआ, चेहरा अण्डे की तरह टेढ़ा, आँखें मछली जैसी, बाहर को निकली हुई और पलकें सफ़ेद,
बछड़े जैसी बरौनियों वाली, मानो उन पर मढ़ दी गई
हों : ऐसा लगता था, मानो चमड़ी कम पड़ गई हो, मानो अगर वह उन्हें बंद करता है तो मुँह खुला रह जाएगा, और अगर मुँह बन्द करेगा तो पलकों को खुला रखना पड़ेगा. और तीखन इल्यिच
कड़वाहट से चीखा :
“अबे,
मोटी अक्ल के! खर दिमाग! मुझपे क्यों झटकता है?”
उसके रिहाइशी कमरे,
रसोईघर, दुकान और खत्ती, जहाँ पहले शराब का व्यापार होता था – सब मिलकर एक लकड़ी का चौकोर बना रहे
थे, सब एक ही लोहे की छत के नीचे थे. तीन ओर से उससे चिपकी
हुई थी जानवरों को गर्माने के लिए बने, फूस से ढँके बरामदों
की छतें – और एक आरामदेह चौकोर बन गया था. खत्तियाँ घर के सामने थीं, सड़क के उस पार. बाईं ओर स्टेशन था, दाहिनी ओर –
राजमार्ग. राजमार्ग के पीछे बर्च वृक्षों का वन. और जब तीखन इल्यिच अपने आपे में न
रहता, वह राजमार्ग पर निकल जाया करता. सफ़ेद पट्टे की तरह,
एक क्रॉसिंग से दूसरी क्रॉसिंग तक यह रास्ता भाग रहा था, दक्षिण की ओर, खेतों के साथ-साथ कभी नीचे जाता और
फिर दूर स्थित चौकी से उठकर, जहाँ दक्षिण-पूर्व से आनेवाली
रेल की पटरी उसे काटती हुई जाती थी, क्षितिज की ओर भागता. और
अगर दुर्नोव्का का कोई किसान गुज़र रहा होता – ज़ाहिर है, कोई
कामकाजी, अक्लमन्द, उदाहरण के लिए याकव,
जिसे सब याकव मिकीतिच इसलिए कहते थे कि वह अमीर और लालची है – तो
तीखन इल्यिच उसे रोक लेता.
“कम से कम अपने लिए हैट तो
ख़रीद लेते!” वह हँसते हुए कहता.
याकव टोपी,
सन की कमीज़, छोटी भारी पतलून पहने, नंगे पैर गाड़ी के ऊँचे भाग पर बैठा था. उसने मोटे-ताज़े घोड़े को रोकते हुए
रस्सी की लगाम खींची.
“नमस्ते,
तीखन इल्यिच”, संयत स्वर में उसने कहा.
“नमस्ते! टोपी को तो,
मैं कह रहा था, चिड़ियों के घोंसले के लिए
कुर्बान करने का वक्त आ गया है.”
याकव ने चालाकी भरी
मुस्कुराहट से ज़मीन की ओर देखते हुए सिर हिलाया.
“ये ख़याल...क्या कहें...बुरा
तो नहीं. हाँ, पूँजी तो, मिसाल
के तौर पर, इजाज़त नहीं देती.”
“बहस किए जाओगे! हम ख़ूब
जानते हैं आपको, कज़ान के अनाथों को! लड़की की शादी
कर दी, छोटे को भी ब्याह दिया, पैसा
है...ख़ुदा से और क्या चाहते हो?”
इससे याकव ख़ुश हो गया,
मगर और ज़्यादा चौकन्ना हो गया.
“ओ,
ख़ुदा!” गहरी साँस लेकर कँपकँपाती आवाज़ में वह बुदबुदाया, “पैसा...वह तो मेरे पास, मिसाल के तौर पर, कभी नहीं रहा...और छोटा...छोटे की क्या बात है? छोटा
ख़ुश नहीं है...साफ़-साफ़ कहना पड़ेगा – ख़ुश नहीं है!”
याकव,
अनेक किसानों की तरह, बहुत घबरा जाता था,
ख़ासकर तब, जब बात उसके परिवार और खेती-बाड़ी तक
पहुँचती थी. बड़ा छुपा रुस्तम था, मगर इस समय घबराहट मात खा
गई थी, हालाँकि सिर्फ उसकी बेतरतीब, कँपकँपाती
बातें ही उसे प्रकट कर रही थीं और उसे पूरी तरह से उत्तेजित करने के लिए तीखन
इल्यिच ने फ़िक्रमन्द की तरह पूछ लिया:
“ख़ुश नहीं है?
बताओ न, मेहेरबानी से! सिर्फ औरत की वजह से?”
याकव ने खुलकर नाखून से
सीना खुजलाया:
“औरत की वजह से,
ख़ुदा उसे गारद करे...”
“जलती है?”
“जलती है...कहती है,
अपनी बहू के साथ मेरा लफ़ड़ा है...”
और याकव की आँखें नाचने
लगीं:
“वहाँ दूल्हे से शिकायत की,
हमारी शिकायत की. और क्या – ज़हर देना चाह रही थी. कभी, मिसाल के तौर पर, मान लो, ज़ुकाम
हो गया है, थोड़े कश लगा लिए, जिससे
सीने में थोड़ी हलकान हो जाए...उसने तो बस सिगरेट ही मेरे तकिये के नीचे रख
दी...अगर मैं नहीं देखता – तो बस, गया ही था.”
“कैसी सिगरेट?”
“मुर्दों की हड्डियों का
चूरा करके तम्बाकू के बदले सिगरेट के कागज़ में लपेट दिया...”
“ओय,
ओय, छोटा तो बेवकूफ़ है! उसे अच्छी तरह से रूसी
में समझाता!”
“कहाँ का समझाना! मेरे तो,
मिसाल के तौर पर, सीने पर चढ़ बैठा! और ख़ुद
साँप जैसा कुँडली मारे बैठा है! सिर से पकड़ना चाहूँ, तो सिर
के बाल तो पूरे साफ़ हैं...गिरेबान से खींचें – कमीज़ फ़टने का अफ़सोस होगा!”
तीखन इल्यिच ने सिर हिलाया,
एक मिनट चुप रहा और आख़िर उसने कुछ फ़ैसला कर ही लिया :
“और,
तुम्हारे यहाँ क्या हाल है? बग़ावत का इंतज़ार
है?”
मगर अब याकव की रहस्यमयता
लौट आई थी. वह हँसा और उसने हाथ झटके. “लो!” जल्दी-जल्दी वह बड़बड़ाया,
“कौन शैतान चाहता है – बगावत! हमारे लोग अमनपसन्द हैं...अमनपसन्द
लोग...”
और उसने लगाम खींची,
मानो घोड़ा खड़ा नहीं हो रहा हो.
“तो,
जलसा क्यों हुआ था इतवार को?” अचानक कड़वाहट से
तीखन इल्यिच ने बात काटी.
“जलसा?
शैतान ही जाने उन्हें! दहाड़ रहे थे, थोड़ी देर,
मिसाल के तौर पर...”
“जानता हूँ,
किस बारे में दहाड़ रहे थे.”
“और क्या,
मैं छुपा नहीं रहा...बकवास कर रहे थे, मिसाल
के तौर पर, कि निकला है, क्या कहते हैं
उसे, हाँ, हुकुमनामा...जैसे कि हुकुमनामा
निकला है – किसी भी हालत में पुरानी मज़दूरी पर मालिकों के घर काम न किया जाए...”
बड़ा अपमानजनक लग रहा था यह
सोचकर कि किसी दुर्नोव्का की वजह से काम हाथों से छूटा जा रहा है. और घर तो इस दुर्नोव्का
में हैं बस तीन दस. और हैं भी वे ऐसी शैतानों की जगह पर : चौड़ी खाई,
एक किनारे पर – झोंपड़ियाँ, दूसरे पर – ज़मीन्दार
की हवेली. और नज़र मिलाती है यह हवेली झोंपड़ियों से और करती है इंतज़ार हर रोज़ किसी ‘हुकुमनामे’ का...ऐह, कुछ कज़ाकों
को पकड़कर कोड़े बरसाने चाहिए!”
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