1.10
मृत्यु के विचार को भंग
किया एक अन्य विचार ने : स्वर्गवासी तो स्वर्गवासी, और इस
स्वर्गवासी की शायद मिसाल दी जाएगी. कौन था वह, अनाथ,
भिखारी, जिसे बचपन में दो-दो दिन रोटी का
टुकड़ा नसीब नहीं होता था...और अब?
“तेरी जीवनी तो लिखी जानी चाहिए,”
मज़ाक से एक दिन कुज़्मा ने कहा.
मगर मज़ाक उड़ाने जैसी तो
कोई चीज़ है ही नहीं. मतलब यदि ग़रीब, मुश्किल से पढ़
सकने वाले लड़के से तीश्का के बदले तीखन इल्यिच बना तो उसके पास दिमाग़ ज़रूर था...
मगर अचानक रसोइन ने,
जो एकटक एक-दूसरे को धकिया रहे और नाँद पर अगले पंजों से चढ़ रहे
सुअरों की ओर ही देख रही थी, हिचकी लेते हुए कहा:
“ओह,
ख़ुदा! कहीं ऐसा अनर्थ हमारे यहाँ आज न हो जाए! आज मैंने सपने में
देखा – हमारे आँगन में मवेशियों को हाँककर ला रहे हैं, भेडें,
गायें, हर तरह के सुअर...मगर सब काले थे,
सभी कालों को खदेड़ रहे थे!”
और दिल दुबारा डूबने लगा.
हाँ, यही मवेशी!
अकेले मवेशियों की वजह से
ही ख़ुदकुशी की नौबत आ सकती थी. तीन घण्टे भी नहीं बीते थे – फिर से चाभियाँ उठाओ,
फिर से पूरे आँगन में दाना-पानी घसीटो. बड़े गोशाले में तीन दुधारू
गाएँ थीं, अलग-अलग गोशालों में लाल बछड़ा, साँड बिस्मार्क : अब उन्हें चारा दो. घोड़ों और भेड़ों
को खाने में चाहिए भूसी; और घोड़े के बच्चे को – शैतान भी
नहीं सोच सकता कि क्या चाहिए! घोड़े के बच्चे ने अपना सिर दरवाज़े के ऊपर की जाली
में घुसाया, ऊपरी होंठ उठाया, गुलाबी मसूड़े
और सफ़ेद दाँत दिखाए, नथुने बिगाड़े...और तीखन इल्यिच स्वयम्
के लिए भी अप्रत्याशित रूप से गुस्से से पागल होकर उस पर गरजा:
“शरारत करता है,
शैतान, तुझ पर गाज गिरे!”
फिर से उसने पैर गीले कर
लिए थे, वह ठण्ड खा गया था – गले में सूजन
हो गई – और फिर से उसने रसभरी की शराब पी. सूरजमुखी के तेल और नमकीन ककड़ी के साथ
आलू खाए, कुकुरमुत्ते डला हुआ गोभी का सूप पिया, गेहूँ की खीर खाई ...चेहरा लाल हो गया, सिर भारी हो
गया.
कपड़े उतारे बगैर – सिर्फ
एक पैर को दूसरे पैर पर रखकर गन्दे जूते उतार फेंके और बिस्तर पर लेट गया. मगर उसे
इस बात की परेशानी हो रही थी कि जल्दी ही फिर से उठना होगा : घोड़ों को,
गायों को और भेड़ों को शाम की लम्बी घास देना है, घोड़े के बच्चे को भी...या नहीं, बेहतर है कि उसे फूस
के साथ मिलाया जाए और फिर पानी और नमक डालकर अच्छी तरह भिगो दिया जाए. मगर,
यदि मस्ती में सो गया तो सोता ही रह जाऊँगा. और तीखन इल्यिच अलमारी
की ओर गया, अलार्म घड़ी ली और उसे चाभी देने लगा. और अलार्म
जी उठा, खट् से बोला – और कमरे में उसके नपी-तुली, भागती हुई टिक-टिक के साए में शान्ति छा गई. उसके ख़याल गड्ड-मड्ड होने
लगे...
मगर गड्ड-मड्ड हो ही रहे थे
कि अचानक बेसुरी, तेज़ आवाज़ में चर्च का गान सुनाई
दिया. घबराहट के मारे आँख़ें खोलकर तीखन इल्यिच ने सबसे पहले एक ही चीज़ पर गौर किया
: दो किसान नासिकायुक्त सुर में चीख रहे हैं, प्रवेश-कक्ष से
ठण्ड और गीली कमीज़ों की गन्ध आ रही है. फिर वह उछलकर बैठ गया और देखने लगा कि वे
कैसे आदमी हैं : एक था अन्धा, चेचकरू चेहरेवाला, छोटी-सी नाक, ऊपर का होंठ लम्बा और बड़ी गोल खोपड़ी
वाला, और दूसरा – ख़ुद मकार इवानोविच!
मकार इवानोविच कभी सिर्फ
मकार्का हुआ करता था – उसे सब इसी नाम से पुकारा करते – ‘मकार्का बंजारा’ – और एक दिन वह तीखन इल्यिच के पास
शराबखाने में घुस गया. मुख्य मार्ग पर कहीं घिसटता हुआ जा रहा था – फूस के बुने
हुए जूते पहने, नुकीली टोपी और चीकट. लम्बे, तंग बाँहों वाले चोगे में, जैसा पादरी लोग पहनते हैं,
और घुस आया. हाथों में – लम्बा डंडा, भूरे
साँप के रंग वाला, जिसके ऊपर के सिरे पर सलीब और निचले सिरे
पर भाला था, कन्धों पर भारी थैला और सिपाहियों वाली डोलची थी,
बाल लम्बे, पीले, चेहरा
चौड़ा, गोंद के रंगवाला, नथुने – जैसे
बन्दूक की दो नलियाँ, नाक कटी हुई, जैसे
काठी का अगला हिस्सा हो, और आँखें, जैसी
कि अक्सर ऐसी नाक के साथ होती हैं, साफ़, पैनी – चमकीली. बेशर्म, चतुर, बेसब्री
से एक के बाद एक सिगरेट पीता हुआ और नाक से धुँआ छोड़ता हुआ, रूखेपन
से रुक-रुककर बातें करता, लहज़ा ऐसा कि कोई विरोध ही न कर सके,
वह तीखन इल्यिच को पसन्द आ गया बस इसी लहज़े के कारण – कि एकदम पता
चल जाता था : ‘एकदम कुत्ते की औलाद’
है.
और तीखन इल्यिच ने उसे
अपने पास रख लिया – नौकर बनाकर. उसकी बंजारों वाली पोषाक उतारकर रख दी. मगर
मकार्का ऐसा चोर निकला कि उसे बेरहमी से मार-मार कर भगा देना पड़ा. एक साल बाद
मकार्का पूरे कस्बे में मशहूर हो गया भविष्यवाणियों के कारण – इतनी दुष्टतापूर्ण
कि उसके आगमन से लोग डरने लगे, मानो वह आग हो.
किसी के घर की खिड़की के नीचे जाता, उनींदे सुर में ‘पवित्र आत्माओं के साथ चिरविश्राम’ खींचकर गाता या
लोभान का टुकड़ा देता, चुटकी भर धूल देता और उस घर में
किसी-न-किसी की मौत ज़रूर होती.
अब मकार्का अपनी पुरानी
पोषाक में और हाथ में डण्डा लिए देहलीज़ पर खड़ा था और गा रहा था. अन्धा उसका साथ दे
रहा था, दूधिया आँखें माथे की ओर घुमाते
हुए. उस बेढंगेपन से, जो उसके नाक-नक्श में था, तीखन इल्यिच ने फ़ौरन पहचान लिया कि वह भगोड़ा कैदी है, भयानक और क्रूर जानवर है. मगर उससे भी ज़्यादा भयानक वह गीत था, जो ये आवारा गा रहे थे. अन्धा ऊपर चढ़ी भौंहो को उदासी से हिलाते हुए, घृणास्पद
अनुनासिक सुर में बेधड़क गाए जा रहा था. मकार्का अपनी निश्चल आँखों को पैमाने से
चमकाते हुए, तैशपूर्ण गहरी आवाज़ में चीख़ रहा था. सब कुछ
मिलाकर कुछ ऊँचे सुर की, रूखी, प्राचीन
गिरजों में गाई जाने वाली सशक्त और चेतावनी देती हुई रचना बन गई थी:
“फूट-फ़ूटकर रोएगी धरती –
माँ, लेगी सिसकियाँ!”
अंधे की आवाज़ गाती.
“फू
S S ट-फू S S टकर रो S Sयेगी.”
“लेगी सि
S S स Sकियाँ!” दृढ़तापूर्वक मकार्का दुहराता.
“सामने रक्षक के,
सामने प्रतिमा के”, - अन्धा गाए जाता.
“शायद पापी पछताए,”
मकार्का अपने धृष्ठ नथुने खोलते हुए धमकाता.
और अन्धे के सुर में अपनी
आवाज़ मिलाते हुए दृढ़ता से निर्णय देता :
“ख़ुदाई
इन्साफ़ से भाग सके ना!
चिर
अग्नि से भाग सके ना!”
और अचानक रुक गया,
अन्धे के साथ-साथ चीखा और सादगी से, अपनी
हमेशा की गुस्ताख़ आवाज़ में हुक्म दिया :
“मेहेरबानी कर,
सेठ, एक जाम से गरमा दे.”
और जवाब का इंतज़ार किए
बिना, देहलीज़ फाँदकर बिस्तर के निकट आया और तीखन
इल्यिच के हाथों में कोई तस्वीर थमा दी.
यह किसी सचित्र पत्रिका से
फ़ाड़ी हुई तस्वीर थी, मगर उसकी ओर देखते ही तीखन
इल्यिच ने अपने सीने के निचले हिस्से में अचानक सर्दी की लहर महसूस की. तूफ़ान से
झुक गए पेड़ों, काले बादलों के बीच दमकती सफ़ेद आड़ी-तिरछी
रेखाओं और एक गिरते हुए आदमी को दर्शाते इस चित्र के नीचे लिखा था;
“जॉन पॉल रीख्तेर,
गाज गिरने से मारा गया.”
और तीखन इल्यिच एक आकस्मिक
भय से बौखला गया.
मगर उसने फ़ौरन तस्वीर के
छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए. फिर पलंग से उतरा और जूते चढ़ाते हुए बोला :
“तू किसी और को डरा,
जो मुझसे ज़्यादा बेवकूफ़ हो. मैं तो भाई, तुझे
अच्छी तरह जानता हूँ! जो मिलता है, ले ले, और ख़ुदा का नाम ले!”
फिर दुकान में गया,
मकार्का के लिए, जो अन्धे के साथ ड्योढ़ी के
पास खड़ा था, दो पौण्ड क्रेण्डेल, दो
नमकीन मछलियाँ लाया और अधिक कठोरता से उसने दुहराया :
“ख़ुदा सलामत रखे!”
“और तम्बाकू?”
बेशर्मी से मकार्का ने पूछा.
“तम्बाकू तो मेरे ही पास
बस एक डिब्बा है,” तीखन इल्यिच ने उसकी बात काटी.
“मुझे, भाई, उल्लू नहीं बनाया जा
सकता!”
और थोड़ी देर चुप रहकर बोला
:
“तेरी साज़िशों के लिए तो तुझे
कुचल देने की सज़ा भी कम ही है!”
मकार्का ने अन्धे की ओर देखा
जो सीधा, तनकर, दृढ़ता से
खड़ा था, भौंहे ऊपर चढ़ाए, और उससे पूछा :
“ऐ ख़ुदा के बन्दे,
तेरा क्या ख़याल है? कुचला जाए या गोली मार दी जाए?”
“गोली मारना ज़्यादा ठीक रहेगा,”
अन्धे ने संजीदगी से जवाब दिया. “यहाँ, कम-से-कम
सीधी सूचना है.”
अँधेरा हो चला था,
बादलों की श्रृंखला के किनारे निलाई से चमक रहे थे, ठण्डे हो रहे थे, सर्दी का एहसास दे रहे थे. कीचड़ गाढ़ा
हो गया था. मकार्का को बिदा करके तीखन इल्यिच ठण्ड खा गए पैरों को ड्योढ़ी में पटकते
हुए कमरे में गया. वहाँ, बिना कपड़े उतारे, खिड़की के पास कुर्सी पर बैठ गया, सिगरेट पी और फिर से
सोच में डूब गया. याद आ गईं गर्मियाँ, विद्रोह, दुल्हन, भाई, बीबी...और यह,
कि अभी उसने काम के लिए मज़दूरी नहीं दी है. उसकी आदत थी तनख़्वाह रोककर
रखने की. लड़कियाँ और लड़के, जो उसके पास रोज़दारी के काम पर आया
करते, शिशिर में पूरे दिन देहलीज़ पर खड़े रहते, अपनी बेहद ज़रूरी आवश्यकताओं का रोना रोते, तैश में आ
जाते, कभी-कभी गुस्ताख़ीभरी बातें करते. मगर वह टस से मस न होता.
वह चिल्लाता, ख़ुदा को गवाह बनाकर कहता, कि उसके पास – “पूरे घर में फूटी कौड़ी भी नहीं है, चाहो
तो ढूँढ़ लो!” और जेबें, बटुए उलटकर दिखा देता, और कृत्रिम क्रोध से अनाप-शनाप बकता, जैसे तगादा करने
वालों द्वारा दिखाए जा रहे अविश्वास से, ‘हृदयहीनता’ से उसे गहरा आघात पहुँचा हो...और बहुत बुरी लगी उसे अब यह आदत. दयाहीन,
कठोर, ठण्डा था वह बीबी के साथ, अक्सर अजनबी-सा. और अचानक इससे भी वह चौंक गया, या ख़ुदा,
उसे यह भी मालूम नहीं कि वह किस तरह की इन्सान है ! कैसे जीती रही,
क्या सोचती रही, इन लम्बे सालों में क्या महसूस
करती रही, जो उसने उसके साथ लगातार झंझटों में काटे?
उसने सिगरेट फेंक दी,
दूसरी सुलगायी...ऊँ, यह राक्षस मकार्का भी बड़ा
चालू है! और जब चालू है, तो क्या वह अन्दाज़ा नहीं लगा सकता कि
किसके साथ, कब, कहाँ और क्या होने वाला
है? उसके, तीखन इल्यिच के साथ तो ज़रूर कोई
बुरी बात होने वाली है. ख़ैर, अब वह जवान भी नहीं है! उसके कितने
हमउम्र उस दुनिया में पहुँच गए हैं! और मौत और बुढ़ापे से कोई बच नहीं सकता. बच्चे भी
नहीं बच सकते. और बच्चों को भी वह न जान पाता, बच्चों के साथ
भी वह वैसा ही अजनबी बना रहता जैसे सभी नज़दीकी लोगों – जीवित और मृतकों - के साथ था.
दुनिया में आदमी ऐसे होते हैं – जैसे आसमान में तारे; मगर ज़िन्दगी
इतनी छोटी है, कितनी जल्दी लोग बड़े होते हैं, जवान होते हैं और मर जाते हैं, कितना कम जानते हैं एक
दूसरे को और कितनी जल्दी भूल जाते हैं विगत को, कि अगर अच्छी
तरह सोचो तो पागल हो जाओ! अभी हाल ही में तो उसने अपने बारे में कहा था:
“मेरी जीवनगाथा तो लिखी जानी
चाहिए...”
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