1.5
मगर फ़िर भी,
‘हुकुमनामा’ तो निकला. एक इतवार को अफ़वाह फ़ैली
कि दुर्नोव्का में – सभा हो रही है, हवेली पर हमला करने की
योजना बनाई जा रही है. दुष्टतापूर्वक मुस्कुराती आँखों से, एक
ख़ास ताकत और मग़रूरी के एहसास से ‘ख़ुद शैतान के सींग उखाड़ने’ की तैयारी से तीखन इल्यिच चीख़ा, “घोड़े को छोटी गाड़ी
में जोतो!” और दस मिनट बाद ही वह उसे दुर्नोव्का वाले रास्ते पर हाँक रहा था.
बारिश के दिन के बाद सूरज लाल-धूसर बादलों में अस्त हो रहा था, बर्च के वन में वृक्षों के तने लाल थे, ताज़गीभरी
हरियाली में अपने काले-बैंगनी कीचड़ के कारण अलग-थलग पड़ गया गाड़ियों का रास्ता बड़ा
उदास प्रतीत हो रहा था. घोड़ों के पुट्ठों से, उनके ऊपर से
गुज़र रहे तस्मे से होकर, गुलाबी झाग टपक रहा था. लगाम की तेज़
आवाज़ करते हुए तीखन इल्यिच रेलमार्ग से बायीं ओर मुड़ा, खेतों
वाला रास्ता पकड़कर दुर्नोव्का पर नज़र डालते ही बग़ावत सम्बंधी अफ़वाहों की सच्चाई पर
उसे एक मिनट के लिए सन्देह हुआ. चारों ओर सुकूनभरी ख़ामोशी थी, भारद्वाज पक्षी शांति से अपने साँझ के गीत गा रहे थे, गीली धरती की सोंधी-सोंधी, सुख-चैनभरी ख़ुशबू आ रही
थी और खेतों के फूलों की मिठास महक रही थी...मगर अचानक, उसकी
नज़र हवेली के पासवाले परती खेतों पर पड़ी, जिनमें घनी पीली
घास उग रही थी, उसके खेतों में किसान का घोड़ा चर रहा था!
इसका मतलब, “खेल शुरू हो गया है!” और लगाम को झटका देकर तीखन
इल्यिच ने गाड़ी भगाई और उड़ता हुआ घोड़ों का झुण्ड, जंगली
फूलों और जंगली बेलों से भरपूर खलिहान, चिड़ियों से भरे निचले
बगीचे, अस्तबल और झोंपड़ियों को पार करता हुआ सीधे आँगन में
उछलता हुआ लौट आया...
और फिर कुछ अप्रत्याशित-सा
हो गया : साँझ के झुटपुटे में कुढ़न, अपमान और डर से
अधमरा हुआ तीखन इल्यिच अपनी गाड़ी पर खेत में बैठा था. सीने में चुभन हो रही थी,
हाथ काँप रहे थे, चेहरा जल रहा था, कान जानवर की तरह तीक्ष्ण थे. वह बैठा था, दुर्नोव्का
से आती चीख़ें सुन रहा था, और याद कर रहा था, कि कैसे भयानक भीड़ उसे देखते ही, खाई से हवेली की
तरफ़ टूट पड़ी, गालियों और चीखों से पूरे आँगन को गुँजाते हुए,
धक्का-मुक्की करते हुए पोर्च में घुस आई और उसे दरवाज़े के पास दबा
दिया. उसके हाथों में सिर्फ चाबुक था. और वह उसे ही लहराने लगा, कभी पीछे हटते हुए तो कभी बदहवासी में भीड़ की तरफ़ लपकते हुए. मगर इससे भी
ज़्यादा बहादुरी से, और अधिक चौड़ाई में, आगे बढ़कर आनेवाला – बद्दिमाग, हड़ीला, धँसे पेट, तीखी नाक वाला, बैंगनी
रंग की फूलदार सूती कमीज़ और जूते पहने मोची लाठी घुमा रहा था. वह पूरी भीड़ की तरफ़
से दहाड़ रहा था कि “हुकुमनामा” निकला है, “इस काम को निपटा
देने के बारे में” – एक ही निश्चित दिन और निश्चित समय पर पूरे प्रान्त में निपटा
देने के बारे में : हर जागीर में बाहर से आये किराए के मज़दूरों को भगाकर उनकी जगह
स्थानीय लोगों को रखना – एक रूबल रोज़ी के हिसाब से! और तीखन इल्यिच मोची की आवाज़
को दबाने के लिए और भी ज़ोर से गरजते हुए दहाड़ा :
“आ-SS,
तो ऐसा है! बहुत होशियार हो गया है, आवारा,
दंगाइयों की संगत में? कुत्तापन करता है?”
और मोची ने,
हवा में लाठी घुमाते हुए, उसके शब्दों को पकड़
लिया:
“तू,
आवारा कहीं का!” खूनी आँखों से वह क्रोध में चिंघाड़ा. “तू सफ़ेद
बालों वाला बेवकूफ़! क्या मैं नहीं जानता कि तेरे पास कितनी ज़मीन है? कितनी, बिल्लियों की खाल नोचनेवाले? दो सौ? और मेरे पास – शैतान! मेरी सारी ज़मीन तो बस
तेरी ड्योढ़ी जितनी ही है! मगर क्यों? तू है कौन? कौन होता है तू, मैं तुझ से पूछता हूँ? तू कौन-सी चीज़ से बना है?”
“ओह,
याद रख मीत्का!” आख़िर तीखन इल्यिच असहायता से चिल्लाया और यह महसूस
करते हुए कि उसके दिमाग़ में धुन्ध छा रही है, वह भीड़ में से
होते हुए गाड़ी की तरफ़ भागा. “ये बात तू याद रखना.”
मगर धमकियों से कोई भी डरा
नहीं और उसे अपने पीछे दोस्ताना ठहाके, गर्जना और
सीटियाँ सुनाई दीं...और फिर उसने हवेली का चक्कर लगाया, निश्चल
खड़ा रहा, सुनता रहा. वह सड़क पर निकल आया, चौराहे पर, और सूर्यास्त की तरफ़, स्टेशन की तरफ़ मुँह करके खड़ा रहा, हर पल घोड़े को
चाबुक लगाने को तैयार. ख़ामोशी, गरमाहट, सीलन और अँधेरा था. धरती, क्षितिज की ओर उठती हुई,
जहाँ अभी भी हल्का लाल रंग सुलग रहा था, काली
प्रतीत हो रही थी, खाई जैसी.
“रुSक,
बदज़ात!” दाँत पीसते हुए तीखन इल्यिच ने हिल-डुल रहे घोड़े से
फुसफुसाकर कहा, “रु S S.क
!”
और दूर से ही आ रही थीं
आवाज़ें, चीख़ें. सभी आवाज़ों से अलग-थलग
वान्का क्रास्नी की आवाज़ सुनाई दे रही थी, जो दो बार दोन की
खदानों में हो आया था. और फिर हवेली के ऊपर गहरी लाल आग की लपटें दिखाई दीं,
किसानों ने बाग में फूस की झोंपड़ी को आग लगा दी थी और पिस्तौल,
जिसे शहर से आया माली भागते हुए झोंपड़ी में ही भूल गया था, अपने आप आग उगलने लगी...
बाद में पता चला कि सचमुच
में ही चमत्कार हुआ था. एक ही दिन किसानों ने लगभग पूरे ज़िले में विद्रोह कर दिया
था. और शहर के होटल सरकार से सुरक्षा पाने की आशा कर रहे ज़मींदारों से काफ़ी समय तक
खचाखच भरे रहे. मगर बाद में बड़ी शर्म के साथ तीखन इल्यिच याद करता रहा कि आशा वह
भी कर रहा था : शर्म के साथ इसलिए, कि पूरा विद्रोह
इस तरह ख़त्म हुआ कि ज़िले में किसान दहाड़ते रहे, कुछेक
हवेलियों को आग लगाते रहे, उन्हें तहस-नहस करते रहे और फ़िर
ख़ामोश हो गए. मोची जल्दी ही, मानो कुछ हुआ ही न हो, फिर से वर्गोल की दुकान पर जाने लगा, और देहलीज़ पर
आदरपूर्वक टोपी उतारता रहा, मानो यह देख ही न रहा हो कि उसके
आते ही तीखन इल्यिच का चेहरा स्याह पड़ जाता है. हालाँकि अफ़वाहें अभी भी गर्म थीं
कि दुर्नोव्कावासी तीखन इल्यिच का काम तमाम करने वाले हैं. और, वह दुर्नोव्का से आने वाले रास्ते पर देर से गुज़रने से डरने लगा, जेब में रखा तमंचा टटोलने लगा, जो बड़े बेहूदा ढंग से
सलवार की जेब नीचे खींचता रहता, उसने कसम खाई कि एक अच्छी-सी
रात को दुर्नोव्का को राख कर देगा... दुर्नोव्का के तालाब के पानी में ज़हर मिला देगा...फिर
अफ़वाहें भी बन्द हो गईं. मगर तीखन इल्यिच ने दुर्नोव्का से नाता तोड़ने का पक्का
इरादा कर लिया. “वे पैसे किसी काम के नहीं, जो दादी के पास
हैं, बल्कि वे अपने हैं, जो सीने के
पास छिपाए हैं!”
इस साल तीखन इल्यिच पचास
का हो गया. मगर बाप बनने का ख़याल उसे छोड़ नहीं रहा था. और इसी ख़याल ने उसे रोद्का
से टकराने पर मजबूर किया.
रोद्का – दुबला-पतला,
फूहड़, उल्यानोव्का से आया हुआ उदास छोकरा,
दो साल पहले याकव के विधुर भाई फ़्योदोत की जागीर में गया; शादी की, फ़्योदोत को दफ़नाया, जो
शादी में बहुत ज़्यादा शराब पी लेने के कारण मर गया था, और
फ़ौज में चला गया, और दुल्हन – सुघड़, खूब
गोरी, नाज़ुक चमड़ीवाली, गालों पर हल्की
लाली लिए, हमेशा झुकी पलकों वाली, हवेली
में दिहाड़ी पर काम करने लगी. और इन पलकों ने तीखन इल्यिच को बेहद परेशान कर दिया.
दुर्नोव्का की औरतें सिर पर ‘सींग’ लगाए
रहती हैं : जैसे ही सेहरा उतरा, चोटियाँ सिर के ऊपर चढ़ जाती
हैं, रूमाल से ढाँक दी जाती हैं, और
कोई जंगली गाय जैसी चीज़ बन जाती हैं. तस्मे जड़े हुए बैंगनी रंग के घाघरे पहनतीं,
सराफ़ान की शक्ल का एप्रन डालतीं और पैरों में फूस के सैण्डिल डाले
रहतीं. मगर दुल्हन – उसका यही नाम पड़ गया था, इस पोषाक में
भी अच्छी लगती. और एक शाम को, अँधेरे खलिहान में, जहाँ दुल्हन अकेली ही बची-खुची बालियाँ साफ़ कर रही थी, तीखन इल्यिच इधर-उधर देखकर फुर्ती से उसके पास गया और जल्दी से बोला :
“चमड़े के जूतों में घूमेगी,
रेशमी रूमालों में...पच्चीस रूबल भी दूँगा!”
मगर दुल्हन चुप रही,
जैसे मुर्दा हो.
“सुनती है,
या नहीं?” फुसफुसाहट से तीखन इल्यिच चीखा.
मगर दुल्हन तो मानो बुत बन
गई थी, सिर नीचा किए, हाथ के डंडों
को नीचा किए.
और इस तरह उसे कुछ भी हासिल
न हुआ कि अचानक रोद्का आ टपका, समय से पहले ही,
काना होकर. यह हुआ दुर्नोव्कावासियों के विद्रोह के फ़ौरन बाद,
और तीखन इल्यिच ने फ़ौरन रोद्का को, बीबी समेत,
दुर्नोव्का की हवेली में मज़दूरी पर लगा दिया यह कहते हुए, कि “बिना फ़ौजी के अब काम नहीं चलने ला.” सेंट-इल्या के उत्सव से कुछ पहले रोद्का
शहर गया नई झाडुएँ और फ़ावड़े खरीदने, और दुल्हन घर में फर्श धो
रही थी. फर्श पर गिरे पानी में चलकर तीखन इल्यिच कमरे में घुसा, देखा उसने फ़र्श पर झुकी दुल्हन को, गन्दे पानी से सनी
उसकी सफ़ेद एड़ियों को, उसके निखरे हुए विवाहित शरीर को...और अचानक
एक विशेष फुर्ती से अपनी शक्ति और इच्छा पर काबू करते हुए दुल्हन की ओर बढ़ा. वह फ़ौरन
सीधी हो गई, अपना उत्तेजित लाल चेहरा उठाया, हाथ में गीला चीथड़ा पकड़े अजीब-सी आवाज़ में चीख़ी :
“ऐसे ही पोत दूँगी तुझे,
मर्दुए!”
साबुन का गर्म घोल,
गर्म जिस्म, पसीने की गंध आ रही थी...और दुल्हन
का हाथ पकड़कर, जंगलीपन से उसे भींचकर, चीथड़ा
छीनकर फेंकते हुए, तीखन इल्यिच ने बाएँ हाथ से दुल्हन की कमर
में हाथ डालकर उसे अपनी ओर खींच लिया, मगर ऐसे कि हड्डियाँ चरमरा
गईं – और उसे दूसरे कमरे में ले गया, जहाँ पलँग था. और,
सिर पीछे किए, विस्फ़ारित नेत्रों से, दुल्हन ने हाथ-पैर नहीं चलाए, प्रतिकार नहीं किया...
इसके बाद बड़ी तकलीफ़ होने लगी
बीबी से आँखें मिलाने में, और रोद्का को देखने
में, यह जानते हुए कि वह दुल्हन के साथ सोता है, वहशियों की तरह उसे मारता है – हर दिन और हर रात. और जल्द ही सब कुछ बड़ा असहनीय
हो गया. अबूझ हैं वे रास्ते, जिन पर चलकर ईर्ष्यालु व्यक्ति सच
तक पहुँचता है. और रोद्का पहुँच ही गया. दुबला-पतला, काना,
लम्बे हाथोंवाला और ताकतवर, बन्दर जैसा,
छोटे-छोटे काले बालों वाले छोटे-से सिरवाला जिसे वह हमेशा झुकाए रखता
था, गहरी धँसी हुई चमकदार आँख से कनखी से देखता, वह डरावना हो गया. फ़ौज में उसने उक्राइनी शब्द और बोलने का ढंग आत्मसात् कर
लिया था. और अगर दुल्हन उसके छोटे, कठोर वाक्यों का विरोध करने
की हिम्मत करती तो वह बड़ी शांति से चमड़े का पट्टा उठाता, ज़हरीली
मुस्कान लिए उसके नज़दीक आता, दाँत पीसते हुए ‘ह’ पर ज़ोर देकर शांति से पूछता :
“आप का कहते हो?”
और उस पर ऐसे चाबुक बरसाता
कि उसकी आँखों के आगे अन्धेरा छा जाता.
एक बार तीखन इल्यिच इस सज़ा
देने के मौके पर आ टपका और, बर्दाश्त न करने के
कारण चीख़ा :
“क्या करता है,
कमीना कहीं का!”
मगर रोद्का ने इत्मीनान से
बेंच पर बैठकर उसकी ओर सिर्फ देखा.
“आप का कहते हो?”
और तीखन इल्यिच फ़ौरन दरवाज़ा
बंद करने के लिए लपका...
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