Tuesday, 30 July 2019

Barf Ka Saand


बर्फ़ का साण्ड‌
लेखक : इवान बूनिन
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास

गाँव, जाड़ों की रात, एक बजे दूर के कमरों से अध्ययन-कक्ष तक बच्चे के कातर रोने की आवाज़ सुनाई दे रही है. ड्योढ़ी, दालान और गाँव सब कुछ काफ़ी देर से सो रहा है. नहीं सो रहा है सिर्फ खुश्योव. वह बैठकर पढ़ रहा है. कभी-कभी अपनी थकी हुई आँखें मोमबत्ती पर टिका देता है : सब कुछ कितना ख़ूबसूरत है. यह नीली-नीली स्टेरिन भी (स्टेरिन – मोमबत्तियों में प्रयुक्त चर्बीयुक्त पदार्थ – अनु.) .
लौ के सुनहरे चमचमाते किनारे, पारदर्शी चटख़ नीले आधार समेत, हौले से फ़ड़फ़ड़ा रहे हैं – और बड़ी-सी फ्रांसीसी किताब के चिकने पृष्ठ को चकाचौंध कर देते हैं. ख्रुश्योव मोमबत्ती के पास अपना हाथ ले जाता है – उँगलियाँ पारदर्शी हो जाती हैं, हथेलियों के किनारे गुलाबी हो जाते हैं. वह, बचपन की तरह, मगन होकर, मुलायम चटख़ लाल द्रव की ओर देखता रहता है, जिससे उसका अपना जीवन प्रकाशित हो रहा है, लौ के सामने से गुज़रता हुआ दिखाई दे रहा है.
रोने की आवाज़ और तेज़ हो गई – दयनीय, मिन्नत करती हुई.
ख्रुश्योव उठकर बच्चों के कमरे की ओर जाने लगता है. वह अँधेरे मेहमानख़ाने से होकर गुज़रता है, उसमें लटके हुए फ़ानूस और शीशा बड़ी मुश्किल से टिमटिमा रहे हैं – अँधेरे, फ़र्नीचर से सजे, बैठने के कमरे से, अँधेरे हॉल से गुज़रते हुए, खिड़कियों के पार चाँद की रात, बगीचे के देवदार के पेड़ों और उनकी काली-हरी, लम्बी, रोयेंदार शाख़ों पर पड़ी हुई हल्की सफ़ेद भारी परतों को देखता है. बच्चों के कमरे का दरवाज़ा खुला है, चाँद की रोशनी वहाँ पतले-से धुँए जैसी दिखाई दे रही है. बिना परदों वाली चौड़ी खिड़की से बर्फ़ से ढँका, आलोकित आँगन सादगी से, ख़ामोशी से झाँक रहा है. नीलिमा लिए सफ़ेद दिखाई दे रहे हैं बच्चों के पलंग. एक पर सो रहा है आर्सिक. लकड़ी के घोड़े फ़र्श पर सो रहे हैं, अपनी गोल-गोल काँच की आँखें ऊपर करके सफ़ेद बालों वाली गुड़िया पीठ के बल सो रही है, वे डिब्बे सो रहे हैं, जिन्हें कोल्या इतनी लगन से इकट्ठा करता है. वह भी सो रहा है, मगर नींद में ही अपने छोटे-से पलंग पर उठकर बैठ गया और फूट-फूटकर असहाय-सा रोने लगा – नन्हा, दुबला-पतला, बड़े-से सिर वाला...
“क्या बात है, मेरे प्यारे?” ख्रुश्योव पलंग के किनारे बैठकर फ़ुसफ़ुसाया, बच्चे का छोटा-सा मुँह रुमाल से पोंछते हुए और उसके नाज़ुक जिस्म को बाँहों में भरते हुए, जो अपनी छोटी-छोटी हड्डियों, छोटे-से सीने और धड़कते हुए नन्हे-से दिल समेत कमीज़ के भीतर से भी दिल को छू लेने वाले अन्दाज़ में महसूस हो रहा है.
वह उसे घुटनों पर बिठाता है, झुलाता है, सावधानीपूर्वक चूमता है. बच्चा उससे लिपट जाता है, हिचकियाँ लेते हुए सिहरता है और कुछ शान्त होता है...यह तीसरी रात उसे कौन-सी चीज़ जगा-जगा दे रही है?
चाँद हल्की-सी सफ़ेद तरंग के पीछे छिप जाता है, चाँद की रोशनी बदरंग होते हुए पिघलती है, मद्धिम हो जाती है, और एक ही पल के बाद फिर बढ़ जाती है, चौड़ी हो जाती है. खिड़की की सिलें फ़िर से सुलगने लगती हैं. आड़े तिरछे वर्ग बने हैं फ़र्श पर. खुश्योव फ़र्श से निगाहें हटाता है, खिड़की की सिल की चौखट पर, देखता है चमकीला आँगन – और याद करता है...यह रहा वो, जिसे आज फ़िर तोड़ना भूल गए. ये सफ़ेद अजीब-सी चीज़ जिसे बच्चों ने बर्फ़ से बनाया था, आँगन के बीचों-बीच खड़ा किया था, अपने कमरे की खिड़की के सामने. दिन में कोल्या उसे देखकर डरते-डरते ख़ुश होता है, यह किसी आदमी के धड़ जैसा, साँड के सींगोंवाले सिर और छोटे-छोटे फ़ैले हुए हाथों वाला – रात को , सपने में उसकी भयानक उपस्थिति का आभास होता है, अचानक, नींद खुले बिना ही, वह फूट-फूटकर आँसू बहाने लगता है. हाँ, हिम मानव रात में एकदम डरावना लगता है, ख़ासकर तब, जब उसे दूर से देखा जाता है, शीशे के पार से : सींग चमकते हैं, फैले हुए हाथों की काली परछाई चमकती बर्फ पर पड़ती है. मगर उसे तोड़ने की कोशिश तो करो! बच्चे सुबह से शाम तक बिसूरते रहेंगे, हालाँकि वह अभी से थोड़ा-थोड़ा पिघलने लगा है : जल्दी ही बसन्त आएगा, फूस की छतें गीली होकर दोपहर में सुलगने लगेंगी...ख्रुश्योव सावधानी से बच्चे को तकिए पर रखता है, उस पर सलीब का निशान बनाता है और पंजों के बल बाहर निकल जाता है. प्रवेश कक्ष में वह रेण्डियर की खाल की टोपी, रेण्डियर की खाल का जैकेट पहनता है, काली नुकीली दाढ़ी को ऊपर किए बटन लगाता है. फ़िर ड्योढ़ी का भारी दरवाज़ा खोलता है, घर के पीछे कोनेवाली चरमराती पगडण्डी पर चलता है, चाँद, विरल उद्यान के कुछ ही ऊपर ठहरा हुआ, बर्फ के सफ़ेद ढेरों पर अपना प्रकाश बिखेरते हुए, साफ़ है, मगर जैसा मार्च के महीने में होता है, वैसा निस्तेज है. बादलों की हल्की तरंगों की सींपियाँ क्षितिज पर कहीं-कहीं बिखरी हैं. उनके बीच की गहरी नीली पारदर्शिता में बिरले नीले सितारे ख़ामोशी से टिमटिमा रहे हैं. ताज़ी बर्फ ने पुरानी, कड़ी बर्फ़ को थोड़ा-सा ढाँक दिया. स्नानगृह से बाग में, शीशे जैसी चमकती छत से, शिकारी कुत्ता ज़लीव्का भाग रहा है.
“हैलो!” ख्रुश्योव उससे कहता है. “सिर्फ हम दोनों ही नहीं सो रहे हैं. दुःख होता है सोने में, छोटी-सी ज़िन्दगी है, देर से समझना शुरू करते हो कि वह कितनी हसीन है...”
वह हिम मानव के पास जाता है और एक मिनट के लिए झिझकता है. फ़िर निश्चयपूर्वक, प्रसन्नता से उस पर पैर से चोट करता है. सींग उड़ जाते हैं, साण्ड का सिर सफ़ेद फ़ाहे बनकर गिर जाता है...एक और प्रहार – और रह जाता है सिर्फ बर्फ का ढेर. चाँद की रोशनी से आलोकित ख्रुश्योव उसके ऊपर खड़ा हो जाता है और जैकेट की जेबों में हाथ डालकर चमकती छत की ओर देखता है. अपनी काली दाढ़ी वाला निस्तेज मुख, अपनी रेण्डियर की टोपी कंधे पर झुकाए, वह प्रकाश की छटा को पकड़ने और याद रखने की कोशिश करता है फ़िर मुड़ जाता है और धीरे-धीरे घर से मवेशीख़ाने के आँगन को जानेवाली पगडण्डी पर चलता है. उसके पैरों के पास, बर्फ़ पर, तिरछी परछाई चल रही है. बर्फ़ के ढेरों तक पहुँचकर वह उनके बीच से दरवाज़े से देखता है, जहाँ से तेज़ उत्तरी हवा आ रही है, वह बड़े प्यार से कोल्या के बारे में सोचता है, वह सोचता है कि ज़िन्दगी में हर चीज़ दिल को छू लेने वाली है, हर चीज़ में कोई अर्थ है, हर चीज़ महत्वपूर्ण है. और वह आँगन की ओर देखता है. वहाँ ठण्ड है, मगर आरामदेही भी है. छत के नीचे झुटपुटा है. हिमाच्छादित गाड़ियों के सामने के हिस्से धूसर हो रहे हैं. आँगन के ऊपर नीला – इक्का-दुक्का बड़े सितारोंवाला आसमान. आधा आँगन छाँव में है, आधा प्रकाश में है. और बूढ़े, लम्बे अयालों वाले सफ़ेद घोड़े, इस रोशनी में ऊँघते हुए हरे प्रतीत हो रहे हैं ,

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Monday, 29 July 2019

Gaon - 3.11


3.11

उसे और भी दबा दिया गया – और किसी ने दरवाज़ा खोल दिया. भाप के बादलों में उसने देहलीज़ पार की और वह दरवाज़े के करीब रुक गया. यहाँ कुछ चुने हुए, साफ़-सुथरे लोगों की भीड़ थी, लड़कियाँ फूलदार शॉल ओढ़े हुए, छोकरे पूरे नए कपड़े पहने हुए. फॅक्ट्री के बने सामान की, भेड़ों की खाल के कोटों की, कॅरोसिन, तम्बाकू और पत्तियों की मिली-जुली ख़ुशबू आ रही थी. झण्डियों-पताकाओं से सजा हुआ, छोटा-सा हरा पेड़ मेज़ पर रखा था, अपनी टहनियाँ टीन के टिमटिमाते लैम्प पर फ़ैला रहा था. मेज़ के चारों ओर गीली, पिघलती बर्फ वाली छोटी खिड़कियों के नीचे, नम, काली दीवारों के पास सजे-धजे गायक बैठे थे, फ़ूहड़पन से लाली और पाउडर थोपे, चमकीली आँखों वाले, सिर पर रेशमी और ऊनी रूमाल बाँधे, बालों में बत्तख़ के इन्द्रधनुषी पर खोंसे. जैसे ही कुज़्मा अन्दर आया, काले, दुष्ट और ज़हीन चेहरे वाली, काली चमकती आँखों पर काली घनी भौंहो वाली लँगड़ी दोमाश्का ने भद्दी और दमदार आवाज़ में पारम्परिक विवाह गीत गाना शुरू कर दिया;
हमारे यहाँ शाम को – शाम को,
ढलती हुई शाम को – शाम को.
अव्दोत्या के ब्याह में...
लड़कियाँ ख़ुशी-ख़ुशी, बिखरी हुई आवाज़ों में उसके अन्तिम शब्दों को दुहरा रही थीं और सब दुल्हन की ओर मुड़ीं : वह रिवाज के मुताबिक भट्ठी के पास बैठी थी. अस्त-व्यस्त, सिर से काली शाल से ढँकी हुई. उसे इस गीत का जवाब ज़ोर से देना था – रोते हुए और यह शिकायत करते हुए, “मेरे प्यारे अब्बू, प्यारी अम्मी, कैसे मैं जिऊँगी ज़िन्दगी, दूल्हे के घर सोग मनाती?” मगर दुल्हन चुप थी. और लड़कियों ने गीत ख़त्म करके नाराज़गी से उसकी ओर देखा. फिर वे फ़ुसफ़ुसाईं और फिर मुँह बनाकर, धीरे-धीरे, खींचते हुए यतीमवाला गीत गाने लगीं :
हे, हम्माम, गर्मा जा,
ज़ोर से बजा, चर्च का घण्टा...
और कुज़्मा के कसकर भिंचे जबड़े थरथरा गए, सिर पर और पैरों में ठंड़ी लहर दौड़ गई, गालों की हड्डियों में मीठा दर्द उठा और आँखें भर आईं, आँसुओं से धुँधला गईं. दुल्हन शाल में कसमसाई और अचानक हिचकियों से थरथराने लगी :
“बस, लड़कियों!” – कोई चिल्लाया.
मगर लड़कियाँ न मानीं:
चर्च का घण्टा ज़ोर से बजा
मेरे अब्बू को जगा...
दुल्हन कराहते हुए गिरने लगी, चेहरा घुटनों में, हाथों में छिपाए, आँसुओं से उसकी घिग्घी बँध गई...थरथराती, लड़खड़ाती दुल्हन को आख़िर में झोंपड़ी के ठण्डे हिस्से में ले जाया गया. सजाने-सँवारने के लिए.   
फिर कुज़्मा ने उसे आशीर्वाद दिया. दूल्हा याकव के बेटे वास्का के साथ आया. दूल्हे ने उसके जूते पहने थे : दूल्हे के बाल कटे हुए थे, गर्दन नीली झालर वाली कमीज़ से बाहर निकली हुई, हजामत के कारण लाल हो गई थी. वह साबुन से नहाया था और बड़ा जवान और ख़ूबसूरत लग रहा था और इस बात को महसूस करते हुए बड़ी अदा से और संकोच से अपनी काली पलकें झुका लेता था. लाल कमीज़ और खुले बटन वाला भेड़ की खाल का कोट पहने वास्का, बेस्टमैन, ने अन्दर आते हुए गाने वालों पर कड़ी नज़र डाली.
“यह लड़ाई-झगड़ा बन्द करो,” उसने कठोरता से कहा और रिवाज के मुताबिक आगे जोड़ा, “आओ, आओ, सामने आओ.”
गाने वालों ने समूह में जवाब दिया :
“तिगड़ी बिना न बनता घर,
चार कोनों के बिना पड़े न छत.
हर कोने में रख एक रूबल,
                                पाँचवाँ रख बीच में,                        
और रख वोद्का की बोतल.”
( तिगड़ी से यहाँ बाप, बेटा और गृह देवता से तात्पर्य है – अनु.)
वास्का ने जेब से एक बोतल निकाली और मेज़ पर रख दी. लड़कियों ने उसे घेर लिया और ऊपर उठाया. और भी धक्कम-धक्का होने लगा. फ़िर से दरवाज़ा खुला, फ़िर से भाप और ठंडक भीतर आई और लोगों को धक्के देती हुई, हाथों में टीन की फ्रेम में जड़ा देवचित्र लिए अद्नाद्वोर्का भीतर आई और उसके पीछे थी दुल्हन, लेस वाली नीली पोशाक में. वह इतनी सुन्दर, शान्त और निस्तेज लग रही थी कि सभी के मुँह से आह निकल गई. वास्का ने कसकर एक झापड़ लगाया चौड़े कन्धों, बड़े सिर, टेढ़ी टाँगों वाले लड़के को जगह बनाने के लिए और झोंपड़ी के बीच, फूस पर किसी का पुराना भेड़ की खाल का कोट डाल दिया.
उस पर दूल्हा-दुल्हन खड़े हो गए. कुज़्मा ने बगैर सिर उठाए, अद्नाद्वोर्का के हाथों से देवचित्र ले लिया और इतनी ख़ामोशी छा गई कि उत्सुकता से देख रहे बड़े सिर वाले लड़के की सीटी जैसी साँस लेने की आवाज़ भर सुनाई दे रही थी. दूल्हा-दुल्हन एक साथ घुटनों पर गिरकर कुज़्मा के पैरों पर झुके. फिर वे उठे और दुबारा घुटनों के बल गिरे. कुज़्मा ने दुल्हन की ओर देखा, उनकी आँखों में, जो एक पल के लिए मिलीं, एक भय की छाया तैर गई. कुज़्मा का चेहरा फक् हो गया और उसने सोचा, “अभी देवचित्र को फ़र्श पर फेंक दूँगा...” मगर उसके हाथों ने अनचाहे ही देवचित्र से हवा में सलीब का निशान बनाया और दुल्हन ने उसे छूते हुए अपने होंठ उसके हाथ पर टिका दिए. उसने देवचित्र बाज़ू में खड़े किसी के हाथ में थमा दिया, दुल्हन का सिर पकड़कर पितृवत् स्नेह और पीड़ा से उसके नए, सुगंधित रूमाल के ऊपर से चूमते हुए ज़ोर से रो पड़ा. फ़िर, आँसुओं के कारण कुछ भी न देख पाते हुए मुड़ा और लोगों को धक्का देते हुए ड्योढ़ी की ओर चल पड़ा, बर्फ़ीली हवा उसके मुँह पर थपेड़े मार रही थी. बर्फ से अटी देहलीज़ अँधेरे में चमक रही थी, छत मानो गुनगुना रही थी. बाहर बर्फ का बवण्डर उठ रहा था, खिड़कियों से आती रोशनी, जमी हुई बर्फ की मोटाई के कारण धुँए के खम्भों जैसी प्रतीत हो रही थी.
बवण्डर सुबह भी शान्त नहीं हुआ. भूरे, मंडराते धुँधलके में न तो दुर्नोव्का और न ही मीस वाली पवनचक्की दिखाई दे रही थी. कभी रोशनी हो जाती, तो कभी शाम के धुँधलेपन का आभास होता. बाग सफ़ेद हो गया था, उसकी सरसराहट हवा की सरसराहट में मिल गई थी, दूर कहीं बजते हुए घण्टे की आवाज़ आ रही थी. बर्फ के टीलों के नुकीले कँगूरों से धुँआ उठ रहा था. ड्योढ़ी से, जिसमें आँखें सिकोड़े, बवण्डर की ताज़गी के बीच हॉल की चिमनी से आती हुई सुगन्ध महसूस करते हुए कुत्ते बैठे थे, कुज़्मा बड़ी मुश्किल से किसानों, घोड़ों, घण्टियाँ लगी स्लेजों की काली, कोहरे जैसी धुँधली आकृतियों को देख पा रहा था. दूल्हे के लिए एक घोड़ा और दुल्हन के लिए एक घोड़ा जोता गया. गाड़ी को कज़ान के किनारों पर काले डिज़ाइन वाले नमदे से ढाँका गया. साथियों ने अपने कोटों पर रंग-बिरंगे पट्टे बाँध रखे थे. औरतों ने रूई के कोट पहने थे, ऊपर से शॉल ओढ़ी थी, वे गाड़ियों की ओर सँभल-सँभलकर छोटे-छोटे कदम रखते हुए, बड़ी अदा से कह रही थीं : “ओह, प्यारों, ख़ुदा की दुनिया दिखाई नहीं दे रही...” दुल्हन का कोट और उसकी नीली पोषाक ऊपर तक उठा दिए गए थे. वह स्लेज में सफ़ेद साए पर बैठी थी, जिससे पोशाक में सिलवटें न पड़ जाएँ, कागज़ के फूलों के मुकुट से सजा उसका सिर रूमालों और शॉलों से ढँका था. आँसुओं के कारण वह इतनी कमज़ोर हो गई थी कि उसे बवण्डर का शोर, उसमें घूमती काली आकृतियाँ, बातचीत, घण्टियों की टन्-टन् – सब कुछ किसी सपने जैसा लग रहा था. घोड़े अपने कानों को दुबकाते, अपनी गर्दनें बर्फ़ीली हवा से दूर मोड़ते. हवा बातचीत और शोर को बहा ले जाती, आँखों को चुँधियाती, दाढ़ी-मूँछे, टोपियाँ सफ़ेद कर देती, बाराती कोहरे और धुँधलके में बड़ी मुश्किल से एक दूसरे को पहचान पाते.
“ओह, तेरी माँ...!” वास्का ने सिर झुकाते हुए, दूल्हे के पास बैठकर रास पकड़ते हुए गन्दी गाली दी और भौण्डे, उदासीन स्वर में चीख़ा :
“सामन्तों, दूल्हा-दुल्हन को सफ़र के लिए दुआएँ दो!”
किसी ने जवाब दिया :
“ख़ुदा सलामत रखे...”
और स्लेज की घण्टियाँ बजने लगीं, उनकी फ़िसलने वाली पट्टियाँ चरमराने लगीं, बर्फ़ के टीले जिन्हें वे खोदती जा रही थीं, धुँए जैसे लगने लगे, बर्फ ऊपर उड़ने लगी, और हवा के कारण हिमकण, घोड़ों के अयाल, पूँछें एक ओर को लहरा रहे थे...
गाँव में, चर्च के चौकीदार की कोठरी में, जहाँ पादरी के इंतज़ार में लोग गर्मा रहे थे, सब लपटों और धुँए से परेशान हो गए. धुँए की बू चर्च में भी थी; बू, ठण्डक, नीची छत और खिड़कियों की जालियों के कारण थी. मोमबत्तियाँ जल रही थीं सिर्फ दूल्हे, दुल्हन और काले बालोंवाले पादरी के हाथों में, जिसने बड़े-बड़े फूस के जूते पहन रखे थे, जो मोम की बूँदों से ढँकी किताब पर झुककर चश्मे के बीच से जल्दी-जल्दी कुछ पढ़ रहा था. फ़र्श पर यहाँ-वहाँ पानी के रेले बन गए थे, लम्बे जूतों और फूस के जूतों के साथ बहुत सारी बर्फ़ अन्दर आ गई थी, खुले हुए दरवाज़ों से आ रही हवा पीठ पर थपेड़े लगा रही थी. पादरी कड़ी नज़रों से कभी दरवाज़े की ओर, तो कभी दूल्हे-दुल्हन को, उनकी तनावपूर्ण, कुछ भी करने को तैयार आकृतियों को, नीचे से आते मोमबत्तियों के प्रकाश से आलोकित, आज्ञाकारिता और शान्ति के भाव लिए उनके चेहरों को देख रहा था. आदत के मुताबिक, उसने कुछ शब्द कहे, जैसे भावविभोर होकर कह रहा हो, हृदयस्पर्शी स्वर से प्रार्थना कर रहा हो, मगर शब्दों के बारे में और उनके बारे में, जिनके लिए वे कहे गए थे, वह बिल्कुल भी नहीं सोच रहा था.
“ऐ ख़ुदा ए पाक, हर चीज़ को बनाने वाले...” उसने जल्दी-जल्दी कहा, कभी आवाज़ चढ़ाते हुए, कभी आवाज़ नीचे करते हुए. “तूने अपने गुलाम अब्राहम पर मेहेरबानी की और सारा के गर्भ में प्रवेश किया...तूने इसाक को रेबेका दी...याकव और रेशेल को मिलाया...अपने इन गुलामों...”
“नाम?” कठोर फ़ुसफ़ुसाहट से चेहरे का भाव बदले बिना उसने रुककर अपने वाचक की ओर देखते हुए कहा, और जवाब मिलने पर : “देनिस, अव्दोत्या” – भावविभोर स्वर में आगे बोला :
“अपने इन गुलामों देनिस और अव्दोत्या पर मेहेरबानी कर, उन्हें सुकूनभरी ज़िन्दगी, लम्बी उमर, अच्छी अकल दे...उन्हें अपने बच्चों के बच्चों को देखने दे, जन्नत से ओस की बूँदें उन पर टपका...उनके घर अनाज से, शराब से, तेल से भर दे...उन्हें लेबेनान के लोगों जैसी मुक्ति दे...”
मगर आसपास के लोगों ने अगर इसे सुना और समझा भी हो तो सभी को सेरी के घर का ख़याल आया, न कि अब्राहम और इसाक के घर का, देनिस्का का ख़याल आया, न कि लेबेनान के रिहाइशियों का. छोटे पैरों वाले, पराए जूते और पराया कोट पहने, सिर को बिना हिलाए-डुलाए, शादी का बड़ा-सा ताँबे का, ऊपर क्रॉस जड़ा मुकुट सँभालना उसे मुश्किल लग रहा था; और दुल्हन का, जो मुकुट पहने और भी ज़्यादा ख़ूबसूरत और बेजान लग रही थी, हाथ थरथराया और पिघलती हुई मोमबत्ती का मोम उसकी नीली पोशाक की लेस पर टपकने लगा...
शाम के धुँधलके में तूफ़ान और भी भयानक हो गया. घोड़ों को बड़ी तेज़ी से भगाया गया, वान्का क्रास्नी की भारी, गहरी आवाज़ वाली बीबी सामने वाली स्लेज में खड़ी हो गई और जादूगरनी की तरह नाचने लगी, हवा में रूमाल हिलाकर, गरजते हुए गाने लगी - तूफ़ानी, अँधेरे धुँधलके में, बर्फ में, जो उड़-उड़कर उसके होठों पर गिर रही थी और उसकी भेड़िए जैसी आवाज़ थर्रा रही थी:
“भूरे का, कबूतर का
है सुनहरा सिर!”

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Kastryk

कस्त्र्यूक लेखक : इवान बूनिन अनुवाद : आ. चारुमति रामदास 1 खेतों वाले रास्ते के निकट बनी अंतिम झोंपड़ी के पीछे से अचानक ज़ालेस्नी...