3.8
इस शादी के बारे में पहली
बार जब सुना, तो कुज़्मा ने पक्का इरादा कर लिया
कि वह ऐसा नहीं होने देगा. कितना ख़ौफ़नाक, कितना फ़ूहड़! फ़िर,
बीमारी के दौरान, होश में आने पर उसे इस
फ़ूहड़पन का मज़ा भी आया. दुल्हन की उसके प्रति, एक बीमार के
प्रति उदासीनता से उसे अचरज भी हुआ और आघात भी पहुँचा.
“जंगली जानवर!” उसने सोचा
और, शादी के बारे में याद करके कड़वाहट से कहा,
“अच्छा ही हुआ! उसके साथ ऐसा ही होना चाहिए!” अब बीमारी के बाद उसकी
दृढ़्ता और कड़वाहट लुप्त हो गए. एक बार वह दुल्हन से तीखन इल्यिच के इरादे के बारे
में बात कर रहा था और उसने शान्ति से जवाब दिया :
“ओह! हाँ,
मैंने इस बारे में तीखन इल्यिच से बात कर ली है. ख़ुदा उन्हें सेहत
दे, यह उन्होंने ठीक ही सोचा है.”
“ठीक?”
कुज़्मा को आश्चर्य हुआ.
दुल्हन ने उसकी ओर देखा और
सिर हिलाया :
“ठीक क्यों नहीं है?
या ख़ुदा, आप भी अजीब हैं, कुज़्मा इल्यिच! पैसा देने का वादा किया है, शादी का ख़र्च भी ख़ुद ही उठा रहे हैं...फिर किसी रण्डवे के बारे में तो
नहीं सोचा, बल्कि बाँके जवान, बग़ैर
किसी खोट वाले...न मरियल, न शराबी...”
“मगर एक शोहदे,
झगडालू, परले दर्जे के बेवकूफ़ को चुना है,”
कुज़्मा ने उसकी बात पूरी करते हुए कहा.
दुल्हन ने पलकें नीचे झुका
लीं, ख़ामोश हो गई. गहरी साँस ली और मुड़कर दरवाज़े की
ओर बढ़ी.
“तो, आप जैसा
ठीक समझें!” उसने थरथराती आवाज़ में कहा. “आपकी मर्ज़ी...उसे रोक लीजिए...ख़ुदा आपको
सलामत रखे.”
कुज़्मा की आँखें फटी रह
गईं और वह चीख़ा :
“रुक,
क्या तू पागल हो गई है? क्या मैं तेरा बुरा
सोचता हूँ?”
दुल्हन मुड़ी और रुक गई.
“यह बुरा नहीं तो और क्या
है?” उसका चेहरा लाल हो गया, आँखें
दमकने लगीं और वह तैश में आकर बदतमीज़ी से बोली :
“आपके हिसाब से मुझे कहाँ
जाना चाहिए? ज़िन्दगी भर दूसरों की देहलीज़ पर
पड़ी रहूँ? ग़ैरों की रोटी निगलूँ? बेघर,
आवारा जैसी दर-दर ठोकर खाती रहूँ? या फ़िर किसी
रण्डवे या बुड्ढे की तलाश करूँ? क्या मैंने कम आँसू पिए हैं?”
और उसकी आवाज़ फ़ट गई.
वह रो पड़ी और बाहर निकल गई, शाम को कुज़्मा ने
उसे समझाया कि उसका इरादा बनते हुए काम को बिगाड़ना नहीं था, और
आख़िर में उसने इस बात पर यकीन कर लिया, प्यार से और सकुचाते
हुए मुस्कुराई.
“ओह,
शुक्रिया आपका,” उसने उसी प्यारे अन्दाज़ में
कहा, जिसमें वह इवानूश्का से बातें किया करती थी. मगर फ़िर भी
उसकी पलकों पर आँसू थरथरा रहे थे और कुज़्मा ने फ़िर हाथ नचाए :
“अब और किसलिए?”
और दुल्हन ने हौले से जवाब
दिया :
“हो सकता है,
देनिस्का भी ख़ुशी न दे...”
कोशेल डाकघर से करीब डेढ़
महीने के अख़बार ले आया. दिन अँधेरे, कोहरे से ढँके
थे. कुज़्मा सुबह से शाम तक खिड़की के पास बैठे-बैठे पढ़ता रहता. और, ख़त्म करने के बाद नए ‘आतंकवादी हमलों’ और हत्याओं से विचलित होकर वह जड़वत् हो गया. सफ़ेद ओलों की तिरछी मार काले
बदहाल गाँव, गड्ढों वाले गन्दे रास्तों, घोड़ों की लीद, बर्फ़ और पानी पर पड़ रही थी, धुँधलके में कोहरे ने खेतों को ढाँक दिया था...
“अव्दोत्या!” कुज़्मा ने
अपनी जगह से उठते हुए कहा, “कोशेल से कह,
घोड़ा स्लेज में जोत दे.”
तीखन इल्यिच घर में ही था.
फूलदार, तिरछी कॉलर की कमीज़ पहने, साँवला, सफ़ेद दाढ़ी, सफ़ेद भौंहे
ऊपर चढ़ाए, हट्टा-कट्टा, ताकतवर – वह
समोवार के पास बैठा चाय बना रहा था.
“आ S
! भाई!” प्यार से स्वागत करते हुए वह चहका, भौंहे
तनी ही रहीं. “ख़ुदा की दुनिया में निकल ही आए? जल्दी तो नहीं
की?”
“बहुत उकता गया था,
भाई,” कुज़्मा ने उसे चूमते हुए कहा.
“अच्छी बात है,
अगर उकता गया है तो आ, गर्माएँगे और
बतियाएँगे...”
एक-दूसरे की ख़बर-बात पूछकर
वे चुपचाप चाय पीने लगे. फ़िर कश लगाने लगे.
“बहुत दुबला हो गया तू,
भाई,” तीखन इल्यिच ने कश खींचते हुए और
कनखियों से कुज़्मा की ओर देखते हुए कहा.
“दुबला ही होना है,”
कुज़्मा ने हौले से जवाब दिया. “तू अख़बार नहीं पढ़्ता?”
तीखन इल्यिच हँस पड़ा.
“वह बकवास?
ख़ुदा ख़ैर करे!”
“कितने खून?
अगर तू जानता!”
“खून?
ऐसा ही होना चाहिए...तूने नहीं सुना, येल्त्स
के बाहर क्या हुआ था? बीकव भाइयों की हवेली में?...याद है तुझे शायद, वे तोतले...? बैठे थे वे, हमारी-तुम्हारी तरह, एक बार शाम को, चौपड़ खेल रहे थे...अचानक...हुआ क्या?
ड्योढ़ी पर धमधमाते पैरों की आवाज़, चीख़-पुकार :
“खोल!” और, भाई मेरे, वे बीकव पलकें भी
नहीं झपका पाए थे कि उनका नौकर, अपने सेरी जैसा किसान,
उन पर टूट पड़ा, उसके पीछे दो बदमाश, कोई गुण्डे, थोड़े में कहूँ तो...और डण्डों से लैस
थे. डण्डे उठाए और लगे गरजने : “हाथ ऊपर, तेरी माँ की...!”
बीकव, ज़ाहिर है, डर गए थे, मौत के ख़ौफ़ से, वे उछले और चीख़ने लगे : “क्या बात है?”
और किसान बस अपनी ही बात कहे जा रहा था : “हाथ ऊपर, हाथ ऊपर!”
और तीखन इल्यिच उदासी से
मुस्कुराया और ख़यालों में खो गया.
“पूरी बात तो बता,”
कुज़्मा ने पूछा.
“अब बताने को कुछ है ही नहीं...ऊपर
उठाए, ज़ाहिर है, हाथ और पूछने
लगे : “आख़िर तुम लोगों को क्या चाहिए?”
“हैम दे!
चाभियाँ कहाँ हैं तेरी?”
“ओय,
सुअर की औलाद! क्या तुझे नहीं मालूम? वे रहीं,
दरवाज़े की चौखट पर, कील से टँगी हुई...”
“ये सब हाथ ऊपर उठाए-उठाए?”
कुज़्मा ने टोका.
“बेशक,
ऊपर...तो, अब उन्हें भुगतना पड़ेगा उन ऊपर उठे
हाथों का नतीजा : दबा देंगे, ज़ाहिर है. वे जेल में बैठे हैं,
प्यारे...”
“मतलब,
हैम के लिए उन्हें मार डालेंगे?”
“नहीं,
इस दिल्लगी के लिए...माफ़ कर, ऐ ख़ुदा, मेरे गुनाह,” कुछ गुस्से, कुछ
मज़ाकिया अन्दाज़ में तीखन इल्यिच ने कहा, “तुझे भी कुछ मिल
जाएगा, ऐ मालिक, विरोध करने के लिए,
बलाश्किन बनने के लिए. छोड़ने का वक्त आ गया है...”
कुज़्मा ने अपनी सफ़ेद दाढ़ी
खींची. थका हुआ, कृश चेहरा, आहत
दृष्टि, तिरछी, ऊपर को उठी हुई भौंह
आईने में दिखाई दे रही थी, अपने प्रतिबिम्ब को देखकर उसने
हौले से सहमति जताई:
“विरोध करने के लिए?
सही है कि वक्त आ गया है, कब से आ चुका है...”
तीखन इल्यिच ने वार्तालाप
को काम की बात की ओर मोड़ा. बातचीत मतलब की बात की ओर मोड़ दी. साफ़ था कि वह कब से
सोच में डूबा था, बातचीत के दौरान, सिर्फ इसलिए कि उसे हत्याओं से ज़्यादा ज़रूरी कोई बात याद आ गई थी.
“तो,
मैंने देनिस्का से कह दिया है कि वह जितनी जल्दी हो सके इस गाने को
ख़त्म करे,” चायदानी में चाय की पत्ती डालते हुए दृढ़ता के साथ
साफ़-साफ़ और कठोरता से वह बोला, “और भाई, तुझसे गुज़ारिश करता हूँ कि तू इसमें, इस गाने में
हिस्सा ले. मेरे लिए, तू समझ रहा है न, ये अटपटा है. उसके बाद तू यहाँ चला आ. सब कुछ, भाई,
जलने ही वाला है. जब हमने सब कुछ बेचने का फ़ैसला कर ही लिया है,
तो तेरे वहाँ बेकार बैठे रहने में कोई तुक नहीं है. सिर्फ दुगुना
ख़र्च होगा. और, यहाँ आकर, मेरे साथ काम
में लग जा. इस जुए को कन्धों से उतार फेंकेंगे, ख़ुदा ने चाहा,
तो शहर चले जाएँगे. अनाज का धन्धा शुरू करेंगे. यहाँ इस बिल में कुछ नहीं कर सकते. अपने पैरों से इसकी धूल झाड़ देंगे,
फ़िर वह चाहे जहन्नुम में जाए. इसमें रहकर मौत का इंतज़ार तो नहीं
किया जा सकता. मेरे से, कुछ छीन नहीं सकते, अभी मुझे भट्ठी पे लेटने में बहुत देर है. शैतान के सींग भी मैं मरोड़
दूँगा.”
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