Sunday, 14 July 2019

Gaon - 2.06


2.06

वे तीन थे और सभी बीमार थे. एक जवान भूतपूर्व नानबाई, अब भगोड़ा कृषिदास, कँपकँपी और बुखार आने की शिकायत कर रहा था; दूसरे भगोड़े कृषिदास को भी तपेदिक थी, हालाँकि वह यह कहता था कि उसे कोई ख़ास तकलीफ़ नहीं है, “सिर्फ पंखों के बीच में सर्दी लगती है,” अकीम को रतौंधापन था – कुपोषण के मारे झुटपुटे में कम दिखाई देता था. नानबाई निस्तेज चेहरे वाला और प्यारा-सा, छपरी के पास उकडूँ बैठा था. अपने पतले, कमज़ोर हाथों पर रूई के वास्कट की आस्तीनें चढ़ाए, लकड़ी के डोंगे में दलिया धो रहा था.तपेदिक वाला मित्रफ़ान, छोटे कद का, चौड़े और साँवले चेहरे वाला, पूरा गीले चीथड़ों और फटे-पुराने जूतों में, फटे और कड़े जैसे घोड़े के बूढ़े खुर हों, नानबाई के पास खड़ा था और कन्धे ऊपर उठाए चमकदार कत्थई, चौड़ी खुली, भावहीन आँखों से उसके काम को देख रहा था. अकीम बाल्टी खींचकर लाया और छपरी के सामने मिट्टी की छोटी-सी भट्टी में आग जलाकर फूँकने लगा. वह छपरी में आया, वहाँ फूस के कुछ सूखे गट्ठे चुने और दुबारा लोहे की हँड़िया के नीचे धुँआ छोड़ती, गन्धाती आग के पास गया, लगातार कुछ बड़बड़ाते हुए, सीटी-सी बजाती साँस लेते और अपने साथियों के मज़ाकों पर मज़ाकिया – रहस्यमय अन्दाज़ में, फ़ूहड़पन से मुस्कुराते हुए, बीच-बीच में कटुता से उनकी बात काटते हुए. कुज़्मा ने आँखें बन्द कर लीं और कभी उनकी बातचीत, तो कभी पंछियों का गीत सुनता रहा, छपरी के पास नम बेंच पर बैठे-बैठे, जो बर्फीली बूँदों से ढँक जाती, जब गलियारे में धुँधले, बिजली की फ़ीकी चमक से कँपकँपाते और गड़गड़ाते आसमान के नीचे नम हवा चलती. भूख और तम्बाकू के कारण कारण उसे बड़ी कमज़ोरी महसूस हो रही थी. दलिया, ऐसा लगता था, कि कभी बन ही न पाएगा, दिमाग़ से यह ख़याल ही नहीं जा रहा था कि शायद कभी उसे ख़ुद को भी ऐसी जानवरों जैसी ज़िन्दगी जीनी पड़ेगी, जैसी ये चौकीदार जी रहे हैं...और हवा के थपेड़े, दूर से आती एकसार तूफ़ानी गड़गड़ाहट की आवाज़, पंछियों का गीत और अकीम की धीमी, फ़ूहड़, ज़हरीली तुतलाहट, चिरचिरी आवाज़ उसे गुस्सा दिला रहे थे.
“तू, अकीमुश्का, कम-से-कम एक कमरबन्द तो ख़रीद लेता,” कृत्रिम सहजता से नानबाई ने उसकी खिंचाई करते हुए और कुज़्मा की ओर देखते हुए तथा उसे भी अकीम का जवाब सुनने के लिए आमन्त्रित करते हुए कहा.
“तू थोड़ा ठहर जा,” उदासीन व्यंग्य से अकीम ने लम्बी चम्मच से उबलती हुई हाँड़ी से झाग निकालते हुए कहा, “मालिक के यहाँ गर्मियाँ गुज़ारेंगे, तेरे लिए चरमराते लम्बे बूट ख़रीद दूँगा.”
“चरमराते? मैं तो तुझसे माँग ही नहीं रहा.”
“और ख़ुद भी तो फ़टे-पुराने पहने हो.”
अकीम तन्मयता से चम्मच से फ़ेन चख़ने लगा. नानबाई सकुचा गया और आह भरकर बोला :
“हम कहाँ पहनेंगे ऊँचे बूट!”
“दूँगा एक”, कुज़्मा ने कहा, “तुम लोग मुझे बताओ, यहाँ खाते क्या हो तुम! कहीं रोज़ दलिया तो नहीं?”
“और तुझे क्या – मछलियाँ या हैम चाहिए?” अकीम ने पूछा – बिना मुड़े और चम्मच चाटते हुए. “ख़याल बुरा नहीं है. वोद्का की एक बोतल, सोम मछलियाँ तीन पौण्ड, थोड़ा-सा हैम और कुछ चाय जैम के साथ...और, यह दलिया नहीं है, इसे पतली लाप्सी कहते हैं.”
“और गोभी का सूप या शोरवा बनाते हो?”
“हमारे पास, भाई, था वह गोभी का सूप और वह भी कैसा! कुत्ते पर फेंको तो उसके रोयें उड़ जाएँ!”
कुज़्मा ने सिर हिलाया.
“असल में बीमारी की वजह से तू इतना कड़वाहट भरा हो गया है! इलाज करा लेता, थोड़ा बहुत...”
अकीम ने जवाब नहीं दिया. आग बुझ चुकी थी, हँड़िया के नीचे कोयले का लाल ढेर चमक रहा था, बगिया अधिकाधिक अँधेरी होती जा रही थी और अकीम की कमीज़ को फुला रहे हवा के झोंको के साथ आती बिजली की नीली चमक चेहरों को हल्का-सा रोशन कर जाती थी. मित्रफ़ान कुज़्मा की बगल में बैठा था, छड़ी का सहारा लिए, नानबाई नींबू के पेड़ के नीचे एक ठूँठ पर. कुज़्मा के अंतिम शब्द सुनकर नानबाई गम्भीर हो गया.
“और, मैं मानता हूँ,” उसने नम्रता और दुःखी भाव से कहा, “यह सब ख़ुदा की मर्ज़ी है, और कुछ नहीं. ख़ुदा तन्दुरुस्ती नहीं देता, तो कोई भी डॉक्टर तेरी मदद नहीं कर सकता. यहाँ अकीम ठीक ही कहता है : मौत से पहले कोई नहीं मरता.”
“डॉक्टर!” अकीम ने पुश्ती जोड़ी, कोयलों की ओर देखते हुए और ख़ास कड़वाहट से ये शब्द कहते हुए, “दाकदS Sल! डॉक्टर, भाई अपनी जेब की फ़िकर करते हैं. मैं तो उसकी, उस डॉक्टर की, आँतें बाहर निकाल देता, उसकी हरकतों के लिए.”
“सब डॉक्टर एक जैसे नहीं होते,” कुज़्मा ने कहा.
“मैंने सबको नहीं देखा.”
“तो बकबक न कर, अगर देखा नहीं है तो,” सख़्ती से मित्रफ़ान ने कहा.
मगर अब अकीम का मज़ाकिया अन्दाज़ अचानक ग़ायब हो गया. अपनी बाज़ जैसी आँखें निकालते हुए वह अचानक उछला और किसी बेवकूफ़ की-सी उत्तेजना से बोला :
“क्या! यह, मैं बकबक न करूँ? तू अस्पताल गया था? था वहाँ? मगर मैं था! मैं वहाँ सात दिन बैठा रहा, बहुत सारे बनउसने मुझे दिए, तेरे डॉक्टर ने?’ बहुत सारे?”
“ओय, बेवकूफ़,” मित्रफ़ान ने उसे काटते हुए कहा, “सभी को तो बनकी ज़रूरत नहीं होती : यह तो बीमारी पर है.”
“आS Sह! बीमारी पर. अच्छा तो दब जाए वह उनके नीचे, पेट फूट जाए उनका!” अकीम चीख़ रहा था.
वहशीपन से देखते हुए, लम्बी चम्मच पतली लाप्सी में फेंक दी और छपरी में चला गया.
वहाँ उसने सीटी की-सी आवाज़ के साथ साँस लेते हुए लैम्प जलाया और छपरी में कुछ सुखद-सा महसूस होने लगा. फिर छत के नीचे कहीं से चम्मच निकाले, उन्हें मेज़ पर फेंका और चीख़ा : “लाओ भी दलिया!” नानबाई उठा और हँड़िया लेने गया. कुज़्मा के पास से गुज़रते हुए उसने कहा, “मेहेरबानी करके, आइए!” मगर कुज़्मा ने सिर्फ डबलरोटी माँगी, उस पर नमक लगाया और प्रेम से चबाते हुए फ़िर से बेंच पर लौट आया. एकदम अँधेरा हो चुका था. हल्का नीला रंग अधिकाधिक क्षेत्र में तेज़ी से और प्रखरता से शोर मचाते पेड़ों को प्रकाशित कर रहा था, जैसे उसे हवा ने धकेल दिया हो, हर चमक के साथ ख़ामोश हरियाली एक पल को दिखाई देती, जैसे दिन के प्रकाश में दिखाई दे रही हो, इसके बाद सब कुछ कब्र जैसे अँधेरे में डूब गया. पंछी ख़ामोश हो गए – सिर्फ एक गा रहा था मिठास और तीव्रता से – ठीक छपरी के ऊपर. “यह भी नहीं पूछा, कि मैं कौन हूँ, और कहाँ से आया हूँ?” कुज़्मा ने सोचा. “लोगों भाड़ में जाओ तुम!” और मज़ाकिया अन्दाज़ में वह छपरी में चिल्लाया:
“अकीम! तूने तो पूछा भी नहीं : मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ?”
“मगर मुझे तेरी ज़रूरत क्या है?” अकीम ने जवाब दिया. 
“मैं तो उसे दूसरी चीज़ के बारे में पूछ रहा हूँ,” नानबाई की आवाज़ सुनाई दी : “ड्यूमा से वह कितनी ज़मीन पाने की ख़्वाहिश रखता है? क्या सोचते हो, अकीमुश्का?”
“मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ,” अकीम ने कहा, “तू अपने खाद के ढेर से ज़्यादा अच्छी तरह देख सकता है.”
नानबाई फिर से सकुचा गया – एक मिनट के लिए ख़ामोशी छा गई.
“यह, वो, हमारे भाई-बन्दों के बारे में कह रहा है,” मित्रफ़ान ने समझाया. “मैंने कभी कहा था, कि रस्तोव में ग़रीब लोग, याने मज़दूर वर्ग, सर्दियों में खाद की शरण लेते हैं...”
“शहर के बाहर जाते हैं,” अकीम ने प्रसन्नतापूर्वक बातचीत का तार उठाते हुए कहा, “और खाद में! सुअरों की तरह उसमें घुसते हैं, कोई ग़म नहीं!
“बेवकूफ़!” मित्रफ़ान ने उसकी बात काटते हुए कहा. “इसमें हँसने जैसी कौन-सी बात है? अगर ग़रीबी दबोच ले, तो तू भी वहीं घुसेगा.”
अकीम ने चम्मच नीचे रखकर, उनींदेपन से उसकी ओर देखा और फ़िर से, आकस्मिक उत्तेजना से उसने अपनी ख़ाली, बाज़ जैसी आँखें खोलीं और वहशीपन से चीख़ा:
“ आ S S! ग़रीबी! घण्टे के हिसाब से काम करना चाहता था?”
“नहीं तो क्या?” अपने दाहोमियन नथुने फुलाते हुए उसने और अपनी चमकीली आँखों से धिक्कार के साथ अकीम की ओर देखते हुए मित्रफ़ान भी वहशीपन से चीख़ा : “दो दस के सिक्कों के लिए बीस घण्टे?”
“आ S S! और तुझे तो पूरा रूबल चाहिए न एक घण्टे के लिए? ग़ज़ब का लालची है, तेरा पेट फ़ट जाए!”
मगर झगड़ा उतनी ही जल्दी मिट गया, जितनी जल्दी शुरू हुआ था. एक मिनट बाद मित्रफ़ान लाप्सी को फूँक मारते हुए शांति से बातें कर रहा था :
“जैसे यह तो लालची है ही नहीं. हाँ, यही, अन्धा शैतान, एक कोपेक के लिए बेदी के नीचे दबकर मर जाए. आप यकीन करोगे – बीबी को पाँच आल्तीन (एक आल्तीन = तीन कोपेक – अनु.) के लिए बेच दिया था? या ख़ुदा, मैं मज़ाक नहीं कर रहा. हमारे लिपेत्स्क में है एक बूढ़ा, पान्कव नाम है उसका, वह भी पहले बागों की रखवाली किया करता था, मगर अब काम नहीं करता और उसे यह सब बहुत पसन्द है...”
“मतलब, अकीम भी लिपेत्स्की है?” कुज़्मा के पूछा.
“स्तूपेन्को गाँव का है,” उदासीनता से अकीम ने यूँ कहा, जैसे बात उसके बारे में नहीं हो रही हो.
“भाई के पास रहता है,” मित्रफ़ान ने आगे कहा. “ज़मीन पर, उसी के साथ साझे में है, मगर फिर भी यह घर का बुद्धू है, और बीबी, ज़ाहिर है, इसे छोड़कर भाग गई है, और भागी क्यों, तो सिर्फ इसी की वजह से : पान्कव से पाँच आल्तीन का सौदा किया था, कि उसे अपने बदले, रात को बिस्तर में घुसाएगा और घुसा भी दिया.”
अकीम ख़ामोश था, चम्मच को मेज़ पर खटखटाते हुए और लैम्प की ओर देखते हुए. उसने भरपेट खा लिया था, मुँह पोंछ लिया था और अब कुछ सोच रहा था.
“बकवास करना, प्यारे, कोई हल चलाने जैसा नहीं है”, आख़िरकार उसने कहा, “अगर मैंने घुसा भी दिया, तो क्या वह बदरंग हो जाएगी?”
ध्यान से कुछ सुनते हुए उसने दाँत भींचे, भौंहे ऊपर उठाईं, और उसका सुज़्दाली चेहरा ख़ुश-ग़मज़दा हो गया, गहरी, लकड़ी जैसी झुर्रियों से भर गया.
“उसे तो बन्दूक से!” उसने ख़ास रूप से पतली और तुतलाती आवाज़ में कहा, “ एक ही बार में सिर के बल गिर जाएगा!”
“यह तू किसके बारे में कह रहा है?” कुज़्मा ने पूछा.
“इसी पंछी के बारे में.”
कुज़्मा ने दाँत भींच लिए और कुछ देर सोचकर बोला :
“बड़ा कमीना आदमी है तू! जानवर!”
“मेरी...का चुम्मा ले अब”, अकीम ने जवाब दिया. और हिचकी लेकर वहाँ से उठ गया:
“तो, क्या बेकार में आग जलानी है?”
मित्रफ़ान सिगरेट लपेटने लगा, नानबाई - चम्मच बटोरने लगा, और वह मेज़ के पीछे से बाहर आया, लैम्प की ओर पीठ की, जल्दी-जल्दी तीन बार सलीब का निशान बनाया, छपरी के अँधेरे कोने में हाथ झटकते हुए झुका, अपने रूखे, सीधे-सीधे बालों को झटका, चेहरा ऊपर उठाकर प्रार्थना बुदबुदाने लगा. आटे के डिब्बों पर उसकी बड़ी परछाईं टुकड़ों में बँट रही थी. उसने फिर से जल्दी-जल्दी सलीब का निशान बनाया और दुबारा झटके से झुका और कुज़्मा ने अब उसकी ओर बड़ी घृणा से देखा. अकीम प्रार्थना कर रहा है. और उससे पूछने की हिम्मत तो करो कि वह ख़ुदा में विश्वास करता है, उसकी बाज़ जैसी आँखें निकल पड़ेंगी! कैसा तातार जैसा है!”

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