Sunday, 21 July 2019

Gaon - 3.03


3.3

भाई से अलग होने के बाद सेरी काफ़ी अर्से तक किराए के झोंपड़ों में भटकता फिरा, शहर में काम करता और जागीरों में भी. क्लेवेर’ (क्लेवेर – एक विशेष प्रकार की घास, जिसमें गोल-गोल दाने जैसे फूल लगते हैं – अनु.) के काम पर भी गया. यहीं एक बार उसकी किस्मत खुल गई. जिस टुकड़ी में सेरी गया था, उसे क्लेवेर से दाने अलग करने का काम दिया गया – अस्सी कोपेक प्रति पूद’ ( एक पूद = 16.8 किलोग्राम – अनु.) के हिसाब से. मगर क्लेवेर ने अपेक्षा से अधिक दाने दिए. दो पूद से भी ज़्यादा. यह काम करने के बाद सेरी बीज निकालने के काम पर लग गया. उसने बीज कचरे में फेंक दिए, और उन्हें ख़रीद लिया और पैसेवाला हो गया : उसी शरद में उसने उन पूरे पैसों से ईंटोंवाली झोंपड़ी बना ली. मगर हिसाब लगाने में चूक गया : पता चला, कि झोंपड़ी को तपाना पड़ता है. मगर कहाँ से, कोई बताए तो? खाने के लिए भी कुछ नहीं बचा था. हार कर झोंपड़ी का छप्पर ही ईंधन के लिए इस्तेमाल करना पड़ा और वह पूरे साल बिना छप्पर के रही, पूरी काली हो गई. पाइप को भी घोड़े के पट्टे के लिए बेच दिया था. यह सच है कि तब घोड़ा था ही नहीं, मगर कभी न कभी तो घोड़ा लेना ही था...और सेरी ने हाथ हिला दिए: झोंपड़ी बेचने का इरादा कर लिया, मिट्टी की, सस्ती वाली, बनाने या ख़रीदने का फ़ैसला किया. उसने अंदाज़ यूँ लगाया : झोंपड़ी में होंगी – कम-से-कम दस हज़ार ईंटें, एक हज़ार के लिए मिलते हैं पाँच या कभी-कभी छह रूबल; इसका मतलब, उसे मिलेंगे पचास से ज़्यादा...मगर ईंटें सिर्फ साढ़े तीन हज़ार ही निकलीं, और शहतीर के लिए पाँच नहीं, बल्कि ढाई रूबल से संतोष करना पड़ा...पूरी लगन से वह अपने लिए नई झोंपड़ी ढूँढ़ता रहा, पूरे साल वह उन्हीं के बारे में मोल-भाव करता रहा, जो उसकी हैसियत से अधिक की थीं. आख़िर उसने इसी झोंपड़ी पर सन्तोष कर लिया सिर्फ इसी दृढ़ विश्वास के साथ कि भविष्य में उसके पास होगी – मज़बूत, बड़ी और गर्म झोंपड़ी.
“इसमें, मैं साफ़-साफ़ कहता हूँ, मैं नहीं रहने वाला!” एक बार उसने तीखेपन से कहा.
याकव ने बड़े ग़ौर से उसकी ओर देखा और हैट हिलाई.
“अच्छा. मतलब, तुझे उम्मीद है कि जहाज़ आएँगे पैसों से भरे?”
“ज़रूर आएँगे,” सेरी ने रहस्यमय अन्दाज़ में कहा.
“ओह, छोड़ ये बेवकूफ़ी!” याकव ने कहा, “जहाँ मिले, काम पर लग जा, और उसे पकड़ के रख, मिसाल के तौर पर दाँतों से...”
मगर एक अच्छे घर के, सलीकेदार ज़िन्दगी के, किसी अच्छे से असली काम के ख़याल ने सेरी की पूरी ज़िन्दगी में ज़हर घोल दिया. उसका किसी भी काम में मन न लगता...
“वह, लगता है, काम है, शहद नहीं,” पड़ोसी कहते.
“होता, शहद भी होता, अगर मालिक ढंग का होता.”
सेरी, अचानक, ज़िन्दादिली से, मुँह से ठण्डा पाइप निकालता और अपना प्यारा किस्सा सुनाना शुरू करता : कैसे वह, जब कुँआरा था, पूरे दो साल ईमानदारी और भलमनसाहत से येल्त्स के निकट एक पादरी के यहाँ काम करता रहा.
“हाँ, अगर अभी भी वहाँ जाऊँ – मुझे हाथ पकड़कर बिठा लेगा,” वह चहकता. “बस, एक लफ़्ज़ कहने की देर है : आ गया हूँ फ़ादर, आपकी ख़िदमत करने!”
“ओह, तो, मिसाल के तौर पर चले ही जाते...”
“चला जाता! जब बच्चों की पूरी फ़ौज बैठी है. ज़ाहिर है : पराया ग़म – कोई ग़म नहीं. और यहाँ, आदमी मरा जा रहा है, मुफ़्त में ही...”
इस साल भी सेरी मुफ़्त में ही पूरे साल मरता रहा. पूरी सर्दियाँ किसी उम्मीद में वह घर पर ही बैठा रहा, बिना ईंधन के, ठण्ड में, भूखा. लेण्ट के अवसर पर, किसी तरह तूला के निकट के रूसानव परिवार में काम पर लग गया : अपने इलाके में तो कोई उसे लेता ही नहीं था; मगर एक महीना भी बीतने न पाया था, कि उसे रूसानवों का कारोबार कड़वी मूली से भी ज़्यादा बुरा लगने लगा.
“ओह, प्यारे!” एक बार कारिन्दे ने उससे कहा, “देख रहा हूँ : तू भागने की सोच रहा है. तुम सुअर के बच्चे, पैसा पहले ले लेते हो, और फ़िर छुप जाते हो.”
“कोई आवारा छिपता होगा, हम नहीं,” सेरी ने प्रतिवाद किया.
मगर कारिन्दे को ताना समझ में नहीं आया. और पक्के इरादे से काम करना पड़ा. एक बार शाम को सेरी से मवेशियों के लिए भूसा लाने को कहा गया. वह ख़लिहान में गया और फ़ूस की पूलियाँ गाड़ी में भरने लगा. कारिन्दा नज़दीक आया :
“क्या मैंने तुमसे सीधी-सादी रूसी में नहीं कहा, “भूसा लाद?”
“उसके लिए यह वख़्त नहीं है,” सेरी ने दृढ़ता से जवाब दिया.
“वह क्यों?”
अच्छे मालिक भूसा दिन में खिलाते हैं, रात में नहीं.”
“जैसे तू तो बड़ा उस्ताद है ना?”
“मवेशियों को भूखा नहीं रखना चाहता. ऐसी ही है मेरी उस्तादी.”
“और इसीलिए फूस ले जा रहा है?”
“हर चीज़ का अपना-अपना वख़्त होता है.”
“इसी समय लादना बन्द कर.”
“नहीं, काम मैं छोडूँगा नहीं. मैं काम छोड़ नहीं सकता.”
“यहाँ ला चिमटा, कुत्ते, और दफ़ा हो जा!”
“मैं कुत्ता नहीं हूँ, बल्कि बाप्तिज़्मा किया हुआ ईसाई हूँ. ये ले जाऊँगा, तभी हटूँगा और फ़िर हमेशा के लिए चला जाऊँगा.”
“बस, भाई, फ़िज़ूल में बकवास कर रहे हो. जाओगे, और फ़ौरन वापस आ जाओगे, कोल्हू के बैल की तरह.”
सेरी गाड़ी से उछलकर नीचे आया, फूस में चिमटा फेंका :
“मैं, वापस आऊँगा?”
“तू ही तो!”
“ओय, प्यारे, कहीं तू ही न हो! ख़ैर, हम तो तेरे बारे में भी जानते हैं. तेरी भी तो मालिक तारीफ़ नहीं करेगा...”
कारिन्दे के मोटे गालों पर भूरा ख़ून छलक उठा, पुतलियाँ बाहर निकलने को हो गईं.
“आ-S S! ऐसी बात है. तारीफ़ नहीं करेगा? बोलो, अगर ऐसी बात है तो, किसलिए?”
“मुझे कहने की ज़रूरत नहीं.” सेरी बुदबुदाया, यह महसूस करते हुए कि डर के मारे उसके पैर अचानक भारी हो गए हैं.
“नहीं, भाई! बकवास करते हो. तुझे बताना पड़ेगा.”
“और आटा कहाँ गया?", अचानक सेरी चिल्लाया.
“आटा?...कैसा आटा? कैसा?”
“सड़ा हुआ...चक्की से...”
कारिन्दे ने ख़तरनाक तरीके से सेरी का गिरेबान पकड़ लिया. मारने की नियत से – और एक पल के लिए दोनों स्तब्ध रह गए.”तू कर क्या रहा है? टेंटुआ दबा रहा है?” सेरी ने इत्मीनान से पूछा, “गला दबाना चाहता है?”
और अचानक तैश में चीख़ा :
“ले, मार, मार, जब तक कलेजा ठण्डा नहीं हो जाता.”
और छिटककर उसने चिमटा उठा लिया.
“साथियों!” कारिन्दा दहाड़ा, हालाँकि आसपास कोई नहीं था.” मुकादम को बुलाओ, सुनो, वह मुझे भोंक कर मारना चाहता है, सुअर का बच्चा!”
“गर्दन न निकाल, नाक कट जाएगी,” सेरी ने चिमटे को तानते हुए कहा. “याद रख, अब पहले वाला वख़्त नहीं रहा.”
मगर कारिन्दा उछला और सेरी मुँह के बल फूस की ओर उड़ा...
पूरी गर्मियाँ सेरी फिर से घर में बैठा रहा, ड्यूमा से मेहेरबानियों की उम्मीद करते हुए. पूरी पतझड़ में वह घर-घर भटका, इस उम्मीद से कि क्लेवेरवाली किसी टुकड़ी में शामिल हो जाएगा...एक बार गाँव के छोर पर फूस की नई गंजी (टाल) में आग लग गई. सबसे पहले सेरी वहाँ पहुँचा और आवाज़ भर्राने तक दहाड़ता रहा, अपनी पलकें झुलसा लीं, पानी लाने वालों को, जो चिमटे लिए हुए गुलाबी, सुनहरी महाकाय लपटों में घुस पड़े थे, आग के गोलों को खींच-खींचकर अलग कर रहे थे; उनको जो यूँ ही आग, चटख़ती लकड़ियों, पानी के फ़व्वारों, झोंपड़ियों के निकट गिरे देवचित्रों, नाँदों, चरखों और घोड़े की ज़ीनों, बिसूरती हुई औरतों और जले हुए ठूँठों से गिरते हुए काले पत्तों के बीच यूँ ही डोल रहे थे हिदायतें देते हुए उसका तार-तार भीग गया...एक बार अक्तूबर में, जब मूसलाधार बारिश के बाद आए बर्फ़ीले तूफ़ान में तालाब जम गया और पड़ोसी का तपन भट्टी का पाइप कड़े बर्फ़ीले टीले से फ़िसल गया और बर्फ़ की सतह को तोड़ते हुए तालाब में डूबने लगा, सेरी सबसे पहले पानी में कूद पड़ा – बचाने के लिए...पाइप तो फ़िर भी डूब ही गया, मगर इससे सेरी को तालाब से निकलकर, नौकरों वाले कमरे में आकर वोद्का, तम्बाकू और खाने के लिए माँगने का अधिकार मिल गया. पहले वह पूरा बैंगनी पड़ गया था, दाँत-पर-दाँत नहीं रख पा रहा था, सफ़ेद पड़ गए होंठ मुश्किल से हिला रहा था, पराए – कोशेल के – कपड़े पहने. फ़िर मानो उसमें जान आ गई, वह नशे में झूमने लगा, डींगे हाँकने लगा और फ़िर से बताने लगा कि कैसे उसने ईमानदारी और भलमनसाहत से पादरी की ख़िदमत की और कैसी आसानी से पिछले साल बेटी का ब्याह करवाया था. वह मेज़ पर बैठा था, लालचीपन से जुगाली कर रहा था, कच्चे हैम के टुकड़े गटक रहा था और अपने आप ख़ुश होते हुए सुनाने लगा :
“अच्छी बात है. लगी हुई थी वह मात्र्यूश्का, उस इगोर्का के साथ...ख़ैर चल रहा था, चल रहा था. चलने दो. एक बार खिड़की के पास बैठे-बैठे क्या देखता हूँ – इगोर्का एक बार खिड़की के सामने से गुज़रा, दुबारा...और मेरी वाली बार-बार खिड़की से झाँक रही थी...मतलब, दोनों ने तय कर लिया है, मैंने मन में सोचा. मैंने बीबी से कहा : तू मवेशियों को दाना दे, मैं जा रहा हूँ, जलसे में बुलाया है. झोंपड़ी के पीछे घास के ढेर में छिपकर बैठ गया, बैठा रहा, इन्तज़ार करता रहा. पहली बर्फ़ गिर चुकी थी. देखता हूँ, फ़िर से नीचे से छिपता हुआ आ रहा है इगोर्का...और यह भी आई. खलिहान के पीछे चले गए, फिर घुस गए पास ही में बनी नई वाली, ख़ाली झोंपड़ी में, मैंने थोड़ी देर इंतज़ार किया...”
“क्या किस्सा है!” कुज़्मा ने कहा और दुख से मुस्कुराया. मगर सेरी ने इसे तारीफ़ समझा, उसकी अक्लमन्दी और चालाकी की प्रशंसा समझा. वह कहता रहा, कभी आवाज़ ऊँची करता, कभी व्यंग्य से नीची कर लेता :
“रुक, सुन तो सही, आगे क्या हुआ! मैं कह रहा था, राह देखता रहा मैं, थोड़ी देर, और फ़िर उनके पीछे अन्दर घुस गया...उछलकर देहलीज़ पार की. सीधे गया, उसे पकड़ लिया! डर गए दोनों, मानो मौत आ गई हो. वह बोरे की तरह उसके ऊपर से लुढ़ककर ज़मीन पर आ गया, और वह जम गई, पड़ी रही, बत्तख़ की तरह...” “ले, अब मुझे मार!” वह बोला. “मारने के लिए,” मैंने कहा, “मुझे तेरी ज़रूरत नहीं है...” उसका कोट ले लिया, पतलून भी, सिर्फ कच्छा रहने दिया, ऐसा जैसे पैदा हुआ था... “तो,” मैं बोला, “अब जा, जिधर जाना है...”और ख़ुद घर चला आया. देखता हूँ कि वह भी पीछे-पीछे आ रहा है : बर्फ़ सफ़ेद – और वह भी सफ़ेद, चला आ रहा है, नाक सुड़सुड़ाते हुए...जाने के लिए कोई जगह ही न थी. कहाँ घुसे? मेरी मात्र्योना निकोलायेव्ना, जैसे ही मैं झोंपड़ी से बाहर आया, भागी खेत की ओर. भागती रही. बड़ी मुश्किल से पड़ोसन उसे बसोवो के पास हाथ पकड़कर घसीटती हुई मेरे पास लाई. मैंने उसे सुस्ताने दिया और फ़िर बोला , “हम लोग ग़रीब हैं, है कि नहीं?” चुप रही. “माँ तो तेरी कमज़ोर और कितनी अक्लमन्द है?” फ़िर भी ख़ामोश रही. " कितना बेइज़्ज़त किया तूने हमको? हाँ? तू क्या पूरी फ़ौज पिल्लों की पैदा करेगी और मैं बस आँखें झपकाते देखता रहूँगा?" फिर उसे धुनना शुरू कर दिया. मेरे पास एक अच्छा-सा चाबुक था...मुख़्तसिर में कहूँ, तो उसकी पूरी कमर उधेड़ दी. और वह, बैठा रहा बेंच पर, बिसूरता रहा. फ़िर मैंने उसकी ख़बर ली, उसे प्यार की..."
"और उसने शादी की?" कुज़्मा ने पूछा.
"तो!" सेरी चहका और यह महसूस करते हुए कि नशा उस पर हावी हो रहा है, तश्तरी से हैम के टुकड़े उठा-उठाकर कुर्ते की जेब में डालने लगा. "कैसी थी वह शादी! ख़र्चे की, मैं भाई, परवाह नहीं करता..."
"क्या कहानी है!" इस शाम के बाद कुज़्मा बड़ी देर तक सोचता रहा. मौसम ख़राब हो गया था. लिखने का मन नहीं हो रहा था, उदासी बढ़ती जा रही थी. इतनी-सी ही ख़ुशी की बात थी कि कोई कुछ विनती करने के लिए आ जाता था. कई बार बसोवो से गलोलवी आ चुका था, एकदम गंजा किसान, भारी-भरकम टोप पहने, अपने समधी की शिकायत लिखवाने, जिसने उसकी कन्धे की हड्डी तोड़ दी थी. बेवा बुतीलच्का आई थी मीस से - बेटे को चिट्ठी लिखवाने, चिथड़े पहने, पूरी गीली और बारिश के कारण ठिठुरती. बोलती जाती, आँखों में आँसू लिए :
"शहर, सिर्पुखोव, ज़मीन्दार के हम्माम के पास, झेल्तूखिन का घर..."
और रो पड़ती.
"तो?" कुज़्मा पूछता, अपनी भौंह पीड़ा से ऊपर उठाते, बूढ़ों की तरह चष्मे के ऊपर से बुतीलच्का को देखते हुए. "ये लिख लिया है. आगे?"
"आगे?" बुतीलच्का फुसफुसाते हुए पूछती और अपनी आवाज़ पर काबू रखते हुए आगे कहती :
"आगे, मेरे दुलारे, बहुत अच्छी तरह लिख...दिया जाए, मतलब है, मिखाइल नज़ारिच ख्लूसव को...उसके हाथों में..."
और वह कहती जाती है. कभी रुक-रुककर, कभी एकदम बिना रुके:  
"ख़त है हमारे प्यारे और दुलारे बेटे मीशा को, ये क्या बात हुई मीशा, तू हमे भूल गया. एक भी ख़बर नहीं भेजी...तू जानता है कि हम किराए के मकान में रहते हैं, और अब हमें निकाल रहे हैं, अब हम कहाँ जाएँगे...हमारे प्यारे बेटे मीशा, ख़ुदा की ख़ातिर, तेरी मिन्नत करते हैं, घर आ जा, जितनी जल्दी हो सके..."
और फ़िर आँसुओं के बीच फ़ुसफ़ुसाती:
"हम यहाँ तेरे साथ एक ज़मीन खोदकर छप्पर डाल लेंग़े, कम-से-कम अपने कोने में तो पड़े रहेंगे..."

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Kastryk

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