2.3
बसन्त
में, तीखन से सुलह होने से कुछ महीने पहले, कुज़्मा ने सुना कि कज़ाकोवो गाँव में, उसके अपने पैतृक कस्बे में, एक बाग
किराए पर दिया जा रहा है,
और वह फ़ौरन उस ओर चल
पड़ा.
मई
का आरंभ था; तपन के बाद ठण्ड, बारिश
लौट आई थी, शहर के ऊपर शिशिर के उदास बादल तैर रहे थे. कुज़्मा पुराने
चुइका (चुइका – किसानों का कोट जो पूरे शरीर को ढाँक लेता है – अनु.) और
पुरानी टोपी,
उधड़ गए लम्बे बूट पहने
पुश्कार्नाया बस्ती वाले स्टेशन पर चहल कदमी कर रहा था, सिर
हिलाते हुए, दाँतों में दबी सिगरेट के कारण माथे पर शिकन डाले, हाथ पीछे,
चुइका के भीतर किए, व्यंग्य से मुस्कुराया : उसके सामने अभी-अभी एक बालक
नंगे पैर दौड़ते हुआ गुज़रा था,
हाथों में अख़बारों का
गट्ठा पकड़े और दौड़ते हुए, आदत के मुताबिक ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए :
“आम
हड़ताल!”
“देर
कर दी, बच्चे”,
कुज़्मा ने कहा, “कोई नई चीज़ नहीं है क्या?”
बच्चा
कुछ देर रुका और आँखों में चमक लाते हुए बोला, “नये, पुलिसवाले ने स्टेशन पर छीन लिए,”
“वाह, क्या संविधान है!” कुज़्मा ने व्यंग्य से ताना कसा और
आगे बढ़ा, बारिश से काली पड़ गई, सड़ी
हुई बाड़ों के निकट की गंदगी को फाँदते हुए, बगीचों
के पेड़ों की गीली शाखों के नीचे से,
और पहाड़ की ढलान पर, सड़क के अंतिम छोर तक जाती हुई टेढ़ी झोंपड़ियों की
खिड़कियों के नीचे से. ‘छलनी में चमत्कार!’ फाँदते
हुए उसने सोचा. पहले ऐसे मौसम में दुकानों पर, शराबखानों
में लोग उबासियाँ लेते,
मुश्किल से शब्दों का
आदान-प्रदान करते.
अब तो पूरे शहर में
ड्यूमा के बारे में,
विद्रोहों के बारे में, अग्निकाँडों के बारे में अटकलें लगाई जा रही हैं, यह बताया जा रहा है, कि
कैसे मूरम्त्सेव (मूरम्त्सेव प्रथम ड्यूमा का सभापति था – अनु.) ने
प्रधानमन्त्री की छिलाई कर दी थी....हाँ, मेंढ़की
की पूँछ थोड़ी ही देर रहती है. शहर के उद्यान में पुलिस बैण्ड बज रहा था...पूरे सौ
कज़ाकों को यहाँ भेजा गया था...और तीसरे दिन तर्गोवाया मार्ग पर, उनमें से एक, नशे
में धुत् सार्वजनिक वाचनालय की खुली खिड़की के पास आया, और
पतलून के बटन खोलकर महिला पुस्तकालय-प्रमुख से ‘अंकगणित’ खरीदने की पेशकश करने लगा. बूढ़ा कोचवान, जो पास ही खड़ा था, उसे
शर्मिन्दा करने लगा,
मगर कज़ाक ने तलवार खींच
ली, उसके कन्धे को चीर दिया और माँ की गालियाँ देते हुए
सड़क पर, डर के मारे, जहाँ
भी सींग समाए,
पैदल और वाहनों में भागने वालों के पीछे
लपका...
“बिल्ली
चोर, बिल्ली चोर, आया है
आँगन की ओर!” पतली-पतली आवाज़ में कुछ लड़कियाँ, जो
बस्ती के निकट पतले-से झरने के निकट पत्थरों पर कूद रही थीं, कुज़्मा के पीछे चीख़ीं : “बेचे बिल्ली, कौड़ी मोल!”
“ऊSSS शैतान कहीं की!” कुज़्मा के आगे-आगे जाने वाले कण्डक्टर
ने, जो देखने में भी भारी-भरकम ओवरकोट पहने था, उन्हें डाँटा. जैसे वह तुम्हारी बराबरी का है!”
मगर
उसकी आवाज़ से समझ में आ रहा था कि वह अपनी हँसी रोक रहा है. कण्डक्टर के पुराने, गहरे गलोशों पर सूखी कीचड़ जमी थी, ओवरकोट का कमरबन्द, पीछे, एक बटन पर झूल रहा था. लकड़ियों के तख़्तों की पुलिया, जिस के ऊपर से वह गुज़र रहा था, आड़ी-तिरछी बनी हुई थी. आगे, गड्ढों
के निकट, जो बसन्त के पानी से साफ़ धुल गए थे, कुछ बीमार-से बेंत के पेड़ खड़े थे. कुज़्मा ने उनकी ओर, और बस्ती की पहाड़ी पर ऊपर की ओर आती हुई फूस की छतों
को, उन पर तैर रहे धुँए और नीले बादलों को, और लाल कुत्ते को, जो
गड्ढे में हड्डी खुरच रहा था,
अप्रसन्नता से देखा.
“हाँ, हाँ,”
उसने पहाड़ी पर चढ़ते हुए
सोचा, “मेंढक की पूँछ ज़्यादा देर नहीं रहती.” ऊपर चढ़कर, खाली,
हरे खेतों के बीच रेल्वे
स्टेशन की लाल इमारतों को देखकर वह फिर उदासी से मुस्कुराया. पार्लियामेन्ट का
प्रतिनिधि! कल वह एक बाग से लौट रहा था, वहाँ
त्यौहार के उपलक्ष्य में रोशनी हो रही थी, रॉकेट
छोड़े जा रहे थे,
और पोलिस बैण्ड
“तोरियोदोर” और “नदी किनारे,
पुल के पास” , “मात्विश” और “त्रोयका” बजा
रहा था, और ‘गैलप’
(एक प्रकार का अंग्रेज़ी
नृत्य – अनु.) के
बीच में “ऐ प्यारे!” कह रहा था – वापस लौटा और अपनी सराय के दरवाज़े की घण्टी बजाने
लगा – रस्सी से बंधी घण्टी को वह खींचता रहा, खींचता
रहा – कोई भी नहीं आया. आसपास भी कोई नहीं था; ख़ामोशी, ठण्डा,
हरियाला-सा आसमान, साँझ का धुँधलका, क्षितिज
की ओर, चौक के उस पार, सड़क के
छोर पर सिर के ऊपर बादल...आख़िरकार दरवाज़े के पीछे कोई घिसटता हुआ, कराहता हुआ आया. चाबियाँ खनखनाता हुआ बड़बड़ाया :
“मैं
हमेशा के लिए लँगड़ा हो गया.”
“ऐसा
कैसे हुआ?” कुज़्मा ने पूछा.
घोड़े
ने दुलत्ती मारी”,
दरवाज़ा खोलने वाले ने
जवाब दिया, और दरवाज़ा पूरा खोलते हुए आगे जोड़ा, “आह,
अभी दो और बचे हैं!”
“जज
साहब के तो नहीं?”
“जज
साहब के.”
“जानते
हो, अदालत क्यों आई है?”
“नुमाइन्दे
पर मुकदमा चलाने...कहते हैं कि नदी में ज़हर मिलाने वाला था.”
“नुमाइन्दे
पर? बेवकूफ़,
क्या नुमाइन्दे ये सब
करते हैं?”
“शैतान
ही जाने ये सब...”
बस्ती
के छोर पर, मिट्टी से बनी झोंपड़ी की देहलीज़ के पास एक लम्बे कद का
बूढ़ा खड़ा था फ़टे-पुराने,
घिसे-पिटे ऊँचे बूट
पहने. बूढ़े के हाथ में लम्बी अख़रोट की छड़ी थी, बगल से
गुज़रने वाले को देखकर उसने जितना था,
उससे भी ज़्यादा बूढ़ा
होने का ढोंग करना शुरू कर दिया,
छड़ी को दोनों हाथों में
ले लिया, कन्धे ऊपर उठा लिए, चेहरे
को थका हुआ, दुःखी बना लिया. नम, ठण्डी
हवा, जो खेत से बह रही थी, उसकी
सफ़ेद, लम्बी लटों को सहला रही थी. कुज़्मा को अपने बाप की, बचपन की याद आ गई... “रूस, रूस!
कहाँ जा रहा है तू?”
उसके दिमाग में गोगल के
उद्गार तैर गए. रूस,
रूस!...आह ख़ाली ढोल
पीटने वाले, तुम्हारे पतन की कोई सीमा नहीं है, यह रही ख़ालिस बात, “नुमाइन्दा
नदी में ज़हर मिलाना चाह रहा था...हाँ,
मगर पहले किसे सज़ा देंगे? अभागे हैं लोग, सबसे
पहले – अभागे!” और कुज़्मा की छोटी-छोटी हरी आँखों में आँसू उमड़ आए, अचानक,
जैसा पिछले कुछ समय से
उसके साथ होने लगा था.
कुछ
दिन पहले वह बाबी बाज़ार में टहलते हुए अव्देइच के शराबख़ाने में घुस गया था. आँगन
में आया, घुटनों तक कीचड़ से लथपथ, आँगन
से दूसरी मंज़िल पर ऐसी बदबूदार,
पूरी तरह सड़ चुकी सीढ़ी
से चढ़ा कि उसे भी,
जिसने कई रंग़ देखे थे, उबकाई आ गई; बड़ी
मुश्किल से उसने नमदे के टुकड़े चिपकाया गया, बनात
के बदले फ़टे चीथड़े जड़ा,
रस्सी पर टँगी हुई ईंट
के कुन्दे वाला भारी चीकट दरवाज़ा खोला,
तम्बाकू के धुँए के कारण
चुँधिया गया,
काउन्टर से आती
तश्तरियों की खनखनाहट,
चारों ओर भागते हुए
बेयरों के जूतों की खटखटाहट और ग्रामोफ़ोन की अप्रिय, अनुनासिक
आवाज़ से बहरा हो गया. फिर वह दूर वाले कमरे में गया, जहाँ
लोग कुछ कम थे,
मेज़ पर बैठा, शहद की बोतल मँगवाई...पैरों के नीचे, रौंदे गए,
थूके गए फर्श पर चूसे गए
नींबू के टुकड़े,
अण्डे के छिलके, सिगरेट के टुकड़े...और दीवार के पास, सामने बैठा, फूस
के बने जूते पहने, लम्बे कद का किसान ख़ुशी से मुस्कुरा रहा था, ग्रामोफ़ोन की चीत्कार सुनते हुए अपना झबरा सिर हिला
रहा था. मेज़ पर वोद्का का पैग,
गिलास और क्रेण्डेल (आठ
के अंक के आकार की डबल रोटी – अनु.) पड़ी थी. मगर किसान पी नहीं रहा, सिर्फ सिर हिला रहा है, अपने
जूतों की ओर देखता है और अचानक अपने ऊपर टिकी हुई कुज़्मा की नज़र को महसूस करता है, ख़ुशी से भरी आँखें खोलता है, लहराती हुई लाल दाढ़ी वाला प्यारा-सा, भला चेहरा ऊपर उठाता है. “ओह, उड़कर आ गया!” वह अचरज और ख़ुशी से चीख़ता है और फ़ौरन जोड़
देता है – अपनी सफ़ाई में : मेरा,
जनाब, भाई यहाँ काम...सगा भाई...और आँसुओं को पलकें झपकाकर
बाहर फेंकते हुए कुज़्मा ने दाँत भींच लिए. ओह, शैतानों!
किस हद तक रौंदा है,
पीटा है तुमने लोगों
को!”
“उड़कर
आ गया! ये अव्देइच के यहाँ?
यह तो कुछ भी नहीं : तब
कुज़्मा ने उठकर कहा,
“तो, अलबिदा!” तो वह किसान भी फ़ौरन उठा और ख़ुशी से लबालब
दिल से धन्यवाद की गहरी भावना से,
वातावरण की आरामदेही से, और इसलिए कि उससे आदमी समझकर बातें की गई हैं, तुरन्त जवाब में बोला : “गुस्सा
न कीजिए!”
रेलगाड़ियों
के डिब्बों में लोग पहले सिर्फ बारिश और सूखे के बारे में ही बातें किया करते, इस बारे में कहा करते, कि
“रोटी की कीमत ख़ुदा तय करता है. अब तो कइयों के हाथों में अख़बारों के पन्ने सरसरा
रहे थे, अटकलें लगाई जा रही थीं : फिर से ड्यूमा के बारे में, आज़ादी के बारे में, छीन
लेने के बारे में – मूसलाधार बारिश की ओर, जो
छतों पर शोर मचा रही थी,
किसी का ध्यान नहीं जा
रहा था, हालाँकि बसन्ती बारिश का सबको बेसब्री से इंतज़ार था –
अनाज के व्यापारियों,
किसानों, बस्ती के छोटे लोगों को. एक जवान सिपाही, कटे पैर वाला, पोलियोग्रस्त, काली उदास आँखों वाला, लंगड़ाते
हुए, लकड़ी के पैर से ठकठक करते हुए, हर बार दान मिलने पर मंचूरियन टोपी उतारते हुए, भिखारी जैसे, सलीब
का निशान बनाते हुए गुज़रा. शोरगुल वाली आवेशपूर्ण बहस छिड़ी सरकार के बारे में, मन्त्री दुर्नोवो के बारे में और किसी सरकारी जई के
बारे में...व्यंग्यपूर्वक वह बातें करते रहे उनके बारे में, जिनके बारे में पहले उत्तेजित हुआ करते थे : कैसे ‘वीत्या’
ने पोर्ट्समाउथ के
जापानियों को डराने के इरादे से अपने सूटकेस बाँध लेने का हुक्म दिया था - कुज़्मा
के सामने बैठा हुआ नौजवान,
खसखसे बालों वाला, लाल होकर,
परेशान होते हुए बातचीत
में शामिल हो गया :
“मुझे
इजाज़त दीजिए,
जनाब! आप कहते हैं –
आज़ादी...अब मैं एक क्लर्क हूँ टैक्स इन्स्पेक्टर के दफ़्तर में और राजधानी के
अख़बारों में लेख भेजता हूँ...क्या उसे इससे कोई मतलब है? ये यकीन दिलाता है कि वह भी आज़ादी के पक्ष में है, और इसी बीच उसे पता चला कि मैंने दमकल विभाग की
अनियमितताओं के बारे में लिखा है,
तो मुझे बुलाकर कहता है
: “अगर तू, सुअर के बच्चे, ऐसी
बातें लिखता रहेगा,
तो मैं तेरा सिर तोड़
दूँगा.” इजाज़त दीजिए : अगर मेरे ख़याल उसके मुकाबले ज़्यादा वामपन्थी हों तो...”
“ख़याल?” अचानक मच्छर जैसी भिनभिनाती आवाज़ में नौजवान के पास
बैठा हुआ मोटा, आटे का व्यापारी, ‘स्कपेत्स’ (स्कपेत्स – अठाहरवीं शताब्दी के अंत में रूस का एक
धार्मिक सम्प्रदाय,
जो अपने अनुयायियों
की सुन्नत करवाने पर ज़ोर देता था – अनु.) चिर्न्यायेव, जिसने बोतलों
जैसे ऊँचे बूट पहन रखे थे और लगातार अपनी सुअर जैसी आँखों से उसे घूरे जा रहा था, चीख़ा. उसे सँभलने का मौका दिए बिना गरजने लगा : “ख़याल? तेरे पास ख़याल भी है? और तू वामपन्थी
है? अरे,
मैंने तो तुझे बिन चड्डी
के देखा है! तू तो भूख से मर रहा था,
अपने बाप से अलग नहीं था
तेरा हाल, भिखमंगे कहीं के! तुझे तो इन्स्पेक्टर के पैर धोने चाहिए
और वह पानी पीना चाहिए.”
“सं-वि-धा-न,” पतली आवाज़ में ‘स्कपेत्स’ की बात काटते हुए कुज़्मा गाने लगा और अपनी जगह से उठकर, बैठे हुए लोगों के घुटने दबाते हुए गाड़ी के डिब्बे के दरवाज़े
की ओर बढ़ा.
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