3.01
बहुत-बहुत
पहले, जब ईल्या मिरोनव करीब दो साल से दुर्नोव्का में
रह रहा था, कुज़्मा बिल्कुल बच्चा था, उसके
दिमाग़ में रह गए थे गहरे हरे, तेज़ गन्ध वाले अफ़ीम के पौधे,
जिनमें दुर्नोव्का डूबा हुआ था; एक अँधेरी
गर्मियों की रात : गाँव में एक भी रोशनी नहीं थी और झोंपड़ी के सामने से अँधेरे में
कमीज़ों की सफ़ेदी झलकाती, “नौ कुँआरियाँ, नौ सुहागनें और दसवीं बेवा” जा रही थीं, सभी नंग़े
पैर, सीधे बालों वाली, हाथों में
झाडुएँ, डण्डे, लम्बे दस्ते वाले चिमटे
लिए थीं और बहरा कर देने वाली आवाज़ में ढक्कन और कढ़ाइयाँ टन-टन बजातीं कोई
जंगली-सा समूह गीत गा रही थीं : बेवा एक हल खींच रही थी, उसके
साथ एक कुँआरी लड़की बड़ा-सा देवचित्र लिए थी, और बाकी की
टन-टन बजा रही थीं, ठक-ठक कर रही थीं और बेवा निचले सुर में
गा रही थी:
“तू,
गायों की मौत,
न
आ हमारे गाँव में!”
तो,
कोरस, मातमी धुन में खींचते हुए दुहराता:
“हम
हैं फूँक मारते”
और
पीड़ा से, तीखी, गले से
निकलती आवाज़ में साथ देतीं:
“लोभान
लिए, देवचित्र लिए.”
अब
तो दुर्नोव्का के खेतों का नज़ारा बड़ा साधारण-सा था. कुज़्मा वर्गोल से ख़ुश-ख़ुश और कुछ सुरूर के साथ चला था, तीखन इल्यिच ने दोपहर के खाने के समय घर की बनी हुई
शराब पिलाई थी,
उस दिन बड़ा मेहेरबान था.
उसने प्रसन्नता से अपने चारों ओर फैले हुए सूखे, भूरे
खेतों के विस्तार को देखा. करीब-करीब गर्मियों जैसा सूरज, पारदर्शी हवा, निस्तेज
नीला साफ़ आसमान,
सभी कुछ दिल ख़ुश किए दे
रहा था और लम्बे सुकून का वादा कर रहा था. भूरी, बेतरतीब
कड़वी बूटी, जिसे हल द्वारा जड़ समेत निकाल फेंका गया था, इतनी ज़्यादा थी, कि उसे
गाड़ियों में भर-भरकर ले जाया जा रहा था. हवेली के ठीक पास हल में जुता खड़ा था एक
घोड़ा, जिसकी गर्दन पर कँटीली घास रखी थी. गाड़ी ऊपर तक कड़वी
बूटी से लदी हुई. पास ही लेटा था याकव,
नंगे पैर, छोटी धूलभरी पतलून और लम्बी कमीज़ पहने, बगल में बड़े भूरे कुत्ते को दबाए उसके कान पकड़े था.
कुत्ता गुस्से से भौंक रहा था और ख़ूनी नज़रों से देख रहा था.
“ऐ
S, काटता है?”
कुज़्मा ने पूछा.
“ज़ालिम
है, ताकत बिल्कुल नहीं!” जल्दी से याकव ने अपनी नुकीली
दाढ़ी ऊपर उठाते हुए कहा,
“घोड़ों के थोबड़ों पर ही
लपकता है...”
और
कुज़्मा प्रसन्नता से हँस पड़ा,
किसान किसान ही होता है, और स्तेपी स्तेपी ही रहती है.
रास्ता
नीचे की ओर जा रहा था और क्षितिज सिकुड़ रहा था. सामने खलिहान की नई, लोहे की हरी छत नज़र आ रही थी जो निचले घने बगीचे में
डूब गई प्रतीत हो रही थी. बगीचे के पीछे, सामने
वाली ढलान पर मिट्टी की ईंटों और फूस की छत वाली झोंपड़ियों की लम्बी कतार थी. बाईं
ओर खेतों के पीछे एक बड़ी,
गहरी खाई थी जो हवेली को
गाँव से अलग करने वाली खाई से मिलती थी, दो
पवनचक्कियाँ अन्तरीप से उचककर देख रही थीं, अद्नोद्वोर्त्सी
(हम-आँगन) वालों की झोंपड़ियों से घिरी हुई, जिन्हें
ओस्का ‘मीसवो’
(मीस –
अंतरीप – अनु.) के
नाम से पुकारता था. आम चरागाह में खड़ी थी स्कूल की पुती हुई इमारत.
“क्या
बच्चे पढ़ने जाते हैं?”
कुज़्मा ने पूछा.
“बेशक,” ओस्का ने कहा. “उनका शागिर्द बड़ा तेज़-तर्रार है.”
“कैसा
शागिर्द? उस्ताद तो नहीं?”
“ख़ैर, उस्ताद तो उस्ताद, क्या
फ़र्क पड़ता है. सख़्ती से टरेनिंग दी है – किसी काम के नहीं रह गए. फ़ौजी है. हण्टर से तो नहीं मारता, मगर सब
कुछ ठीक-ठाक होना चाहिए! एक बार हम तीखन इल्यिच के साथ वहाँ गए – कैसे सब एक साथ
उछल पड़े और चिल्लाए : “नमस्ते!” बिल्कुल फ़ौजियों की तरह.”
और
कुज़्मा फिर से हँस पड़ा. जब चरागाह के पास से गुज़रे, छोटे-से
बगीचे के सामने वाले रास्ते को पार करके दाईं ओर मुड़े, लम्बे
आँगन की ओर, जो धूप में सूख गया था, सुनहरा
लग रहा था, तो दिल में भी टीस उठने लगी : आख़िर पहुँच ही गया घर.
ड्योढ़ी में चढ़कर,
देहलीज़ लाँघने के बाद, कुज़्मा ने स्वागत-कक्ष के कोने में रखे हुए, काले पड़ गए देवचित्र को काफ़ी नीचे झुककर प्रणाम
किया...
घर
के सामने, दुर्नोव्का की ओर पीठ किए, चौड़ी
खाई की तरफ़ थे खलिहान. घर की ड्योढ़ी से, कुछ
दाईं ओर, दिखाई देता था दुर्नोव्का, बाईं
ओर ‘मीस (अंतरीप) का एक हिस्सा, पवनचक्की
और स्कूल.
कमरे
छोटे और ख़ाली थी. कमरे में जई फ़ैलाई गई थी, हॉल और
मेहमानख़ाने में सिर्फ कुछ कुर्सियाँ थीं – फ़टी हुई सीटों वाली. मेहमानख़ाने की
खिड़कियाँ बगीचे में खुलती थीं,
पूरी शिशिर कुज़्मा ने
बिना खिड़कियाँ बन्द किए रातें वहीं गुज़ारीं, पिचके
हुए दीवान पर. फ़र्श कभी भी नहीं धुलता था : रसोईन का काम पहले कुछ समय किया था ‘अद्नोद्वोर्का’ बेवा, नौजवान दुर्नोव की भूतपूर्व प्रेमिका ने. जिसे अपने
बच्चों के पास भी भागना पड़ता,
ख़ुद अपने लिए पकाना पड़ता, और कुज़्मा और नौकर के लिए भी. सुबह कुज़्मा ख़ुद ही
समोवार गरम करता फिर हॉल में खिड़की के पास बैठकर सेबों के साथ चाय पिया करता. सुबह
की रोशनी में,
घाटी के पीछे गाँव की
छतों से गहरा धुआँ उठता. बगीचे से ताज़ी महक आती. दोपहर को सूरज गाँव के ठीक ऊपर
खड़ा रहता, आँगन में गर्मी हो जाती, बगीचे
में मेपल और नींबू के पेड़ ख़ामोशी से पत्ते झाड़ते विरल होते जाते. कबूतर धूप से
गर्माकर, साफ़ नीले आसमान की पृष्ठभूमि में, रसोईघर की चमकती, नए फूस
की पीली छत की ढलान पर पूरे दिन सोते रहते. दोपहर के खाने के बाद नौकर सुस्ता रहा
था. ‘अद्नोद्वोर्का’ घर जा
रही थी. कुज़्मा टहल रहा था. वह आम खलिहान में गया – धूप, कड़ी सड़क,
सूख चुके डण्ठलों, भूरे हो रहे बीटरूट, नीली
चिकोरी के पके हुए रंग,
ख़ामोशी से हवा में उड़
रहे गोखरू के रेशों से आनन्दित होते हुए. जहाँ तक नज़र जाती थी, जुते हुए खेतों पर मकड़ियों के रेशम जैसे जाले चमक रहे
थे. घर की बगिया में सूखी हुई कँटीली बेलों पर सुनहरे परों वाले पंछी बैठे थे.
तपते हुए खलिहान की गहरी ख़ामोशी में टिड्डे ज़ोर-ज़ोर से भिनभिना रहे थे...कुज़्मा
खलिहान से मिट्टी की मुँडेर को फ़ाँदकर बगीचे से, देवदार
के झुरमुट से होकर हवेली में लौटा. बगीचे में, बाग
किराये पर लेने वाले ठेकेदारों से बात करके, दुल्हन
और कोज़ा से, जो गिरे हुए फ़ल उठा रही थीं, बतियाते हुए उन्हीं के साथ बिच्छू-बूटी के जंगल में
घुस गया, जहाँ सबसे ज़्यादा पके हुए सेब पड़े थे. कभी-कभी वह गाँव
में टहलता, स्कूल की ओर निकल जाता...
फ़ौजी
शिक्षक, स्वभाव से ही बेवकूफ़, फ़ौज
में रहते हुए पूरी तरह सनक गया था. देखने में वह अत्यंन्त साधारण किसान लगता. मगर
बातें वह हमेशा इतने असाधारण तरीके से करता और ऐसी बकवास करता कि बस हाथों को झटक
देना पड़ता. वह हमेशा बड़ी चालाकी से किसी बात पर मुस्कुराया करता, बातचीत करने वाले को तुच्छता से देखता, आँखें सिकोड़कर, सवालों
के जवाब कभी भी एकदम नहीं देता.
“कैसे
पुकारूँ तुझे?”
कुज़्मा ने पहली बार
स्कूल में आकर पूछा था.
फ़ौजी
ने आँखें सिकोड़ीं,
कुछ देर सोचा.
“बगैर
नाम के तो भेड़ को भी बैल कह सकते हैं,”
आख़िरकार उसने इत्मीनान
से कहा, “मगर मैं भी आपसे पूछता हूँ : ‘आदम’
– ये नाम है या नहीं है?”
“नाम
है.”
“अच्छा, तब से,
करीब कितने लोग अब तक मर
गए होंगे?”
“मालूम
नहीं,” कुज़्मा ने कहा, “मगर यह
किस बारे में पूछ रहा है तू?”
“उसी
बारे में, जो हमें कभी भी समझ में नहीं आ सकता. मैं, मिसाल के तौर पर, हूँ एक
फ़ौजी और घोड़ों का डॉक्टर. कुछ दिन पहले गया था मेले में – देखता हूँ, घोड़ों को छूत की बीमारी लग गई है. फ़ौरन पुलिसवाले के
पास जाता हूँ : ऐसी-ऐसी बात है हुज़ूर.
“और क्या तू उस घोड़े को
कलम से हलाल कर सकता है?”
“बड़ी ख़ुशी से.”
“कैसी
कलम से?” कुज़्मा ने पूछा.
“पंखवाली!
पंख लिया, उसे तेज़ किया, उसे
ख़ास नस में घुसाया,
थोड़ी-सी फूँक मारो, और बस,
तैयार. काम तो, लगता है,
सीधा-सा है, मगर आ जाओ,
करके दिखाओ!”
फ़ौजी
ने शरारत से आँख़ मारी और अपने माथे को उँगली से खटखटाया :
“दिमाग़
वाला काम है.”
कुज़्मा
ने कँधे उचकाए और ख़ामोश हो गया. ‘अद्नोद्वोर्का’ के घर
के करीब से गुज़रते हुए,
उसके सेन्का से शिक्षक
का नाम पूछा. मालूम हुआ कि उसका नाम पार्मेन है.
“कल
के लिए क्या होमवर्क है?”
कुज़्मा ने बड़ी दिलचस्पी
से उसके बालों,
चंचल हरी आँखों, धब्बेदार चेहरे, दुबले-पतले
जिस्म और धूल और हवा के कारण फट गए हाथों-पैरों की ओर देखते हुए पूछा.
“सवाल, कविता.” सेन्का ने बाएँ हाथ से पीछे की ओर ऊपर उठे पैर
को पकड़ कर और एक ही जगह कूदते हुए कहा.
“कैसे
सवाल?”
“कलहँसों
को गिनना. कलहँसों का झुण्ड उड़ रहा था...”
“आ
SS, जानता हूँ,”
कुज़्मा ने कहा. “और क्या?”
“और
चूहे...”
“उन्हें
भी गिनना?”
“हाँ, छह चूहे जा रहे थे, हरेक
के पास छह-छह कोपेक थे,”
कुज़्मा की घड़ी की चाँदी
की जंज़ीर की ओर आँख़ के कोने से देखते हुए सेन्का जल्दी-जल्दी बड़बड़ाया, “एक कमज़ोर-सा चूहा दो कोपेक लिए था...कुल मिलाकर कितने
हुए...?”
“शाबाश!
और कविता कौन-सी?”
सेन्का
ने पैर छोड़ दिया.
“कविता, वह कौन है?”
“याद
कर ली?”
“कर
ली...”
“तो, सुना...”
और
सेन्का और भी ज़्यादा जल्दी-जल्दी बड़बड़ाने लगा, “उस
घुड़सवार के बारे में,
जो नेवा के किनारों पर
बसे जंगलों से जा रहा था,
जहाँ थे सिर्फ ...”
“देवदार, चीड़ और भरी काई...”
“भूरी,” कुज़्मा ने कहा, “भरी
नहीं.”
“अच्छा, भूरी,”
सेन्का मान गया.
“और
यह घुड़सवार कौन था?”
सेन्का
सोचने लगा.
“हाँ, जादूगर,”
उसने कहा.
“अच्छा, माँ से कहना कि तेरे बाल छोटे कर दे. अगर उस्ताद खींचे, तो तेरे ही लिए बुरा है.”
“मगर
फिर वह कान ढूँढ़ लेगा,”
सेन्का ने फिर से अपना
पैर पकड़कर कहा और वह कूदता हुआ चरागाह की ओर निकल गया.
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