3.10
दुर्नोव्का में लौटते हुए
कुज़्मा को बस एक ख़ामोश दर्द का एहसास हो रहा था. इसी बेज़ुबान दुख में दुर्नोव्का
में उसके आख़िरी दिन बीते.
इन दिनों बर्फ गिर रही थी,
और सेरी के घर में बर्फ़ का ही इंतज़ार हो रहा था, जिससे शादी के लिए रास्ता ठीक-ठाक हो जाए.
12 फ़रवरी की शाम को,
सामने वाले ठण्डे कमरे के धुँधलके में हल्की आवाज़ में बातचीत हो रही
थी. भट्ठी के पास, माथे पर काले गोलों वाला पीला रूमाल खींचे
दुल्हन खड़ी थी, अपने फूस के जूतों को देखते हुए. दरवाज़े के
पास था छोटे पैरों वाला देनिस्का, बिना टोपी के, झूलते कन्धों वाले भारी पद्योव्का में. वह भी नीचे देख रहा था, स्टील की एड़ी वाले आधे जूतों की ओर, जिन्हें वह
हाथों में घुमा रहा था. आधे जूते दुल्हन के थे, देनिस्का ने
उनकी मरम्मत कर दी थी और इसी काम के लिए पाँच कोपेक माँगने आया था.
“मगर मेरे पास तो हैं नहीं,”
दुल्हन बोली, “और कुज़्मा इल्यिच सो रहा है. तू
कल तक रुक जा!”
“मैं तो इंतज़ार नहीं कर
सकता,” सोच में डूबी गाती-सी आवाज़ में देनिस्का ने
एड़ी को उँगली से खुरचते हुए कहा.
“तो,
अब क्या किया जाए?”
देनिस्का ने कुछ देर सोचा,
गहरी साँस ली और अपने घने बालों को झटका देते हुए अचानक सिर उठाया.
“अच्छा, बेकार में ज़ुबान क्यों चलाऊँ?” दुल्हन की ओर न देखते हुए और अपने संकोच पर काबू पाते हुए उसने ज़ोर से और
दृढ़ता से कहा. “तुझसे बात की तीखन इल्यिच ने?”
“की.” दुल्हन ने जवाब
दिया.
“तो,
अब मैं बाप को लेकर आता हूँ. कुज़्मा इल्यिच तो अब उठकर चाय पीने ही
वाले हैं...”
दुल्हन सोचने लगी.
“तेरी मर्ज़ी...”
देनिस्का ने जूते खिड़की की
सिल पर रख दिए और पैसों के बारे में बात किए बगैर चला गया. आधे घण्टे बाद ड्योढ़ी
में बर्फ जमे उनके फूस के जूतों की खटखट सुनाई दी : देनिस्का सेरी को साथ लिए लौटा
था और सेरी ने न जाने क्यों अपने चेकमैन पर नीचे की ओर लाल कमरबन्द बाँध रखा था.
कुज़्मा उनके स्वागत के लिए बाहर आया. देनिस्का और सेरी बड़ी देर तक अँधेरे कोने में
सलीब का निशान बनाते रहे, फिर उन्होंने
अपने बाल झटके और चेहरे ऊपर उठाए.
“तू बाप हो या न हो,
मगर है भला आदमी!” सेरी ने धीरे-धीरे विशेष आत्मीयता के सुर में
कहा. “तुझे मिली हुई बेटी ब्याहनी है, मुझे अपना बेटा.
ख़ुशी-ख़ुशी, रज़ामन्दी से, आओ अपनी ज़ुबान
दें!”
और वह शानदार ढंग से नीचे
झुका.
अपनी बीमार मुस्कुराहट को
रोकते हुए कुज़्मा ने दुल्हन को बुलवाया.
“भाग,
ढूँढ़,” फ़ुसफ़ुसाते हुए, जैसे
गिरजे में हों, सेरी ने देनिस्का को हुक्म दिया.
“हाँ,
मैं यहाँ हूँ!” भट्टीवाले कमरे के दरवाज़े के
पीछे से बाहर निकलते हुए दुल्हन ने कहा और सेरी का झुककर अभिवादन किया.
ख़ामोशी छा गई. फ़र्श पर रखा
हुआ, दहकती जाली वाला समोवार अँधेरे में उबल रहा था.
फ़ुसफ़ुसा रहा था. चेहरे दिखाई नहीं दे रहे थे.
“तो,
बच्चों, क्या करना है, सोच
लें.” कुज़्मा ने मुस्कुराते हुए कहा.
दुल्हन सोचने लगी.
“मुझे इस नौजवान से कोई
शिकायत नहीं...”
“और तुझे,
देनिस?”
देनिस्का भी कुछ देर चुप
रहा.
“एक-न-एक दिन तो शादी करनी
ही है – शायद, ख़ुदा ने चाहा, तो यह भी बुरी नहीं...”
समधियों ने शुभ काम शुरू
हो जाने पर एक दूसरे को मुबारकबाद दी. समोवार नौकरों वाले हॉल में लाया गया.
अद्नाद्वोर्का ने, जो सबसे पहले यह समाचार सुनकर मीस
से दौड़ी-दौड़ी आई थी, हॉल में लैम्प जलाया, कोशेल को वोद्का और सूरजमुखी के बीज लाने के लिए भेजा, दूल्हा-दुल्हन को देवचित्रों के नीचे बिठाया, उन्हें
चाय पेश की, ख़ुद सेरी की बगल में बैठी और अटपटेपन को दूर
करने के लिए देनिस्का की ओर, उसके भूरे, निस्तेज चेहरे, लम्बी पलकों की ओर देखते हुए ऊँची और
तेज़ आवाज़ में गाने लगी :
आया
हमारे बाग में.
हरे
अँगूर की बगिया में
आया,
घूमा एक नौजवान
गोरा,
सफ़ेद बालों वाला नौजवान...
दूसरे दिन, जिसने भी सेरी से इस जश्न के बारे में सुना, वह
मुस्कुरा दिया और सलाह देने लगा, “तू कम-से-कम थोड़ी तो मदद
करता नौजवान जोड़े की!”
यही कोशेल ने भी कहा,
“उनकी नई-नई ज़िन्दगी है, नए जोड़े की मदद करनी
चाहिए!” सेरी चुपचाप घर गया और दुल्हन के लिए, जो हॉल में
इस्त्री कर रही थी, दो बर्तन और काले धागे की गिट्टी ले आया.
“ये,
बहू,” उसने परेशान होते हुए कहा, “सास ने भेजा है. शायद, किसी काम आए...कुछ है ही नहीं
मेरे पास, अगर होता, तो मैं कुर्ते में
से निकाल कर दे देता...”
दुल्हन ने झुककर उसे
धन्यवाद दिया. वह लेस के पर्दे पर इस्त्री कर रही थी,
जो तीखन इल्यिच ने शादी के घूँघट के बदले भेजा था और उसकी आँखें नम
और लाल थीं. सेरी ने उसे ढाढ़स बँधाना चाहा, यह कहना चाहा कि उसके लिए भी यह ‘शहद नहीं’ है, मगर वह सकुचा गया, गहरी
साँस लेकर बर्तनों को खिड़की की सिल पर रख दिया और चला गया.
“धागे तो मैंने बर्तनों के
अन्दर रख दिए हैं,” वह बुदबुदाया.
“धन्यवाद,
अब्बू,” दुल्हन ने उसे फ़िर से उसे इतने प्यारे
और ख़ास अन्दाज़ में धन्यवाद दिया, जिसमें वह सिर्फ इवानूश्का
से ही बातें किया करती थी और जैसे ही सेरी बाहर निकला. अचानक वह हल्की-सी मुस्कुराहट
से गाने लगी...”आया हमारे बाग में...”
कुज़्मा ने हॉल से बाहर झाँका
और चश्मे के ऊपर से उस पर कड़ी नज़र डाली. वह चुप हो गई.
“सुन!” कुज़्मा ने कहा,
“शायद, यह सब नाटक ख़त्म कर दिया जाए?”
“अब देर हो चुकी है,”
धीरे से दुल्हन ने जवाब दिया. “वैसे भी, बदनामी
को धोना मुश्किल है...क्या लोग नहीं जानते कि किसके पैसों से दावत होने वाली है?
और ख़र्चे तो शुरू भी हो गए हैं...”
कुज़्मा ने कंधे उचकाए. सही
था, शादी के लिए लेस के परदे के साथ तीखन इल्यिच ने
पच्चीस रूबल, बढ़िया आटे की एक बोरी और एक मरियल-सा सुअर भी भेजा
था...मगर बात इसलिए ख़त्म नहीं की जा सकती थी कि सुअर को काटा जा चुका था.
“ओह!” कुज़्मा ने कहा,
“परेशान कर दिया है तुम लोगों ने मुझे. “बदनामी, खर्चे”...”क्या तू सुअर से सस्ती है?”
“सस्ती या महँगी,
मुर्दों को कब्रिस्तान से वापस नहीं लाते,” आसानी
से और दृढ़ता से दुल्हन ने कहा और गहरी साँस लेकर इस्त्री किए हुए, गर्म लेस के परदे की तह कर दी. “खाना क्या अभी खाएँगे?”
“ख़ैर,
जैसा तू ठीक समझे, जैसा ठीक समझे...”
खाना खाने के बाद वह सिगरेट
पीते हुए खिड़की से बाहर देख रहा था. अँधेरा हो रहा था. हॉल में,
उसे मालूम था कि क्या हो रहा है, रस्मी ‘जई का केक’ बन चुका था, दो भगोने
माँस के बन रहे थे, एक भगोना सेवियों का, एक भगोना गोभी के सूप का, एक भगोना बाजरे की खीर – सब
में ताज़ा पोर्क डाला था. सेरी खलिहानों और छपरी के बीच के बर्फ के टीलों पर भाग-दौड़
कर रहा था. टीले पर, शाम के धुँधलके में, फूस के ढेर से जिसमें मारा गया सुअर रखा गया था, नारंगी
लपटें उठ रही थीं. आग के चारों ओर, भक्ष्य की प्रतीक्षा करते
हुए कुत्ते बैठे थे और उनके सफ़ेद माथे और सीने गुलाबी रेशम जैसे दिखाई दे रहे थे. सेरी,
बर्फ में धँसते हुए, दौड़ रहा था, अलाव को ठीक कर रहा था, कुत्तों को झिड़क रहा था. अपने
कफ़्तान के पल्ले उसने मोड़कर ऊपर, कमरबन्द में खोंस लिए थे,
बाएँ हाथ से, जिसमें चाकू चमक रहा था, वह टोपी सिर पर सरका देता था. अलाव की रोशनी में कभी एक ओर से, तो कभी दूसरी तरफ़ से चमकते, भागते हुए सेरी की परछाईं
बर्फ पर पड़ रही थी, किसी मूर्तिपूजक की परछाईं-सी. फ़िर खलिहान
के सामने से, घास की पगडण्डी पर, अद्नाद्वोर्का
के गाँव की ओर भागी और बर्फ के टीले के नीचे लुप्त हो गई – वह गई थी लड़कियों को बुलाने
और दोमाश्का के यहाँ क्रिसमस-ट्री माँगने, जिसे तहख़ाने में सँभालकर
रखा गया था, जिसे शादी के एक समारोह से दूसरे में पहुँचा दिया
जाता था. जब कुज़्मा बाल बनाकर और अपनी फ़टी कोहनियों वाले कोट को बदलकर, सँभाल कर रखा हुआ लम्बे पल्लों वाला कोट पहनकर हल्के, भूरे अँधेरे में गिरती हुई बर्फ के कारण सफ़ेद हो गई ड्योढ़ी में आया,
तो हॉल की रोशन खिड़कियों के पास लड़कियों, किशोरों,
नौजवानों का एक बड़ा झुण्ड जमा हो चुका था, हुल्लड़
और शोरगुल हो रहा था, एक साथ तीन एकॉर्डियन बज रहे थे,
वगैरह, वगैरह... कुज़्मा झुककर, उँगलियाँ खींचते और चटख़ाते हुए भीड़ के पास पहुँचा, रास्ता
बनाते हुए, सिर झुकाकर अँधेरे में भीतरी पोर्च में गया. यहाँ
भी काफ़ी लोग थे, धक्कम धक्का हो रही थी. बच्चे टाँगों के बीच
रेंग जाते, उन्हें गर्दन पकड़कर उठाया जाता और बाहर भगा दिया जाता,
वे फ़िर से रेंगने लगते...
“आह,
छोड़ो, जाने दो, ख़ुदा के लिए!”
दरवाज़े से भिड़ा दिया गया कुज़्मा चीखा.
No comments:
Post a Comment