2.5
छोटा-सा वन जो क्षितिज पर
दिखाई दे रहा था, दो लम्बी ढलवाँ घाटियाँ – चीड़ के
पेड़ों से भरी हुई, पोर्तोच्की कहलाता था. पोर्तोच्की के निकट
कुज़्मा को ओलों के साथ मूसलाधार बारिश ने दबोच लिया – ठेठ कज़ाकोवो तक. गाँव के
निकट मेन्शोव ने घोड़े को बेतहाशा भगाया और कुज़्मा आँखें अधमुँदी किए गीले ठण्डे
टाट के टुकड़े के नीचे बैठा रहा. ठण्ड के मारे हाथ सुन्न हो गए, चुयका की कॉलर से बर्फीली धाराएँ बह रही थीं, बारिश
के कारण भारी हो चुके टाट के टुकड़े से सड़े हुए धान की बू आ रही थी. सिर पर ओलों की
मार हो रही थी, कीचड़ के ढेले उड़ रहे थे, पहियों में, पहियों के नीचे पानी गरज रहा था,
कहीं मेमने मिमिया रहे थे...आख़िर में उसका दम इतना घुटने लगा कि
कुज़्मा ने सिर के ऊपर से टाट का टुकड़ा पीछे फेंक दिया. बारिश हल्की हो गई, शाम हो रही थी, गाड़ी के निकट से हरे मैदान पर दौड़ते
हुए मवेशियों का झुण्ड़ झोंपड़ियों की ओर निकल गया. पतले पैरों वाली काली भेड़ एक
किनारे रह गई, और उसके पीछे भागी गीले स्कर्ट से ढँकी हुई,
सफ़ेद, चमकदार पिण्डलियों वाली, नंगे पैर औरत. पश्चिम में गाँव के पीछे, उजाला हो
रहा था, पूरब से, भूरे धूल भरे बादल पर,
गेंहूँ के खेतों के ऊपर दो हरे-बैंगनी इन्द्रधनुष छा गए. खेतों की
हरियाली से - गहरी,
गीली सुगन्ध आ रही थी और घरों से – गर्माहट की.
“यहाँ ज़मीन्दार का घर कहाँ
है?” कुज़्मा ने चिल्लाकर सफ़ेद कमीज़ और लाल ऊनी
स्कर्ट पहनी चौड़े कन्धों वाली औरत से पूछा.
औरत झोंपड़ी की पत्थर की
देहलीज़ पर खड़ी थी और हाथ से गला फ़ाड़ रही बच्ची को पकड़े थी. लड़की अविश्वसनीय
कर्कशता से गला फ़ाड़ रही थी.
“घर?”
औरत ने दुहराया, “किसका?”
“ज़मीन्दार का.”
“किसका?
कुछ सुनाई नहीं दे रहा है...आह, दम रोक,
तुझ पे फ़ालिज गिरे!” बच्ची का हाथ इतनी ज़ोर से खींचते हुए कि वह
लुढ़क गई, औरत चीखी.
दूसरी झोंपड़ी में पूछा.
चौड़ा रास्ता पार किया, दाईं ओर मुड़े, फिर बाएँ, और किसी पुरानी हवेली के नज़दीक से गुज़रे
जिसे मज़बूती से ठोंक कर बन्द कर दिया गया था और सीधी पहाड़ी से नीचे उतरने लगे,
नदी पर बने पुल की ओर. मेन्शोव के चेहरे से, बालों
से, कोट से पानी की बूँदें टपक रही थीं. सफ़ेद बरौनियों वाला
उसका मोटा, धुला हुआ चेहरा और भी भावहीन लग रहा था. वह
उत्सुकता से सामने कहीं देख रहा था. कुज़्मा भी देख रहा था. उस किनारे पर, ढलवाँ चरागाह पर थी - कज़ाकोवो की अँधेरी बगिया, चौड़ा
आँगन, जिसमें खण्डहर जैसी इमारतें थीं और था टूटा-फूटा पत्थर
का परकोटा : आँगन के बीच में तीन सूखे हुए देवदारों के पीछे धूसर फ़ट्टों से घिरा
हुआ, ज़ंग लगी लाल छत के नीचे था घर. नीचे, पुल के पास, आदमियों का झुण्ड था. सामने चढ़ाव वाले,
धुले हुए रास्ते पर, कीचड़ से जूझते हुए तीन
मरियल घोड़ों वाली तरान्तास (चार पहियों वाली सफ़री गाड़ी – अनु.) ऊपर की ओर
जा रही थी. फ़टेहाल, मगर ख़ूबसूरत मज़दूर, लाल-सी दाढ़ीवाला, समझदार आँखोंवाला, त्रोयका के पास खड़ा था, लगाम खींच रहा था और फटी हुई
आवाज़ में चीख़ रहा था : “हे S.S!
हे S.S.!”
और आदमी ठहाके मारते हुए, सीटियाँ बजाते
हुए साथ दे रहे थ, “बुर्र S.S.! बुर्र. S.S.!” और तरान्तास में मातमी पोषाक
में बैठी हुई, लम्बी बरौनियों पर आँसुओं की
मोटी-मोटी बून्दें लिए, जवान औरत ने अपने हाथ सामने की ओर
फ़ैला दिये. निराशा उसके निकट बैठे हुए मोटे, लाल-भूरी
मूंछोवाले आदमी की फ़िरोज़ी आँखों में भी थी. शादी की अँगूठी उसके बाएँ हाथ में चमक
रही थी, जिसमें उसने पिस्तौल पकड़ रखी थी, दायाँ हाथ वह लगातार हिलाता जा रहा था और शायद, उसे
अपने ऊँट की खाल के पद्योव्का और कपड़े की टोपी में, जो उसके
सिर से पीछे खिसक गई थी, बड़ी गर्मी लग रही थी. और सीट के
सामने वाली बेंच पर शॉलों में लिपटे हुए दो बच्चे – लड़का और लड़की – मासूम-सी
उत्सुकता से इधर-उधर देख रहे थे.
“यह मीश्का सीवेर्स्की है,”
भर्राई हुई आवाज़ में, ज़ोर से मेन्शोव ने
त्रोयका को पार करते हुए और उदासीनता से बच्चों की ओर देखते हुए कहा, “उसका सब कुछ जला दिया, कल...शायद, वह इसी लायक है.”
कज़ाकोवों का कारोबार एक
कारिन्दा संभालता था, भूतपूर्व सिपाही, लम्बा-चौड़ा और उद्दण्ड. उसके पास, नौकरों वाले हॉल
में, जाना था जैसा कि कुज़्मा को लम्बी-लम्बी, ताज़ा कटी हुई, गीली-हरी घास की गाड़ी आँगन में
लानेवाले मज़दूर ने बताया था. इस दिन कारिन्दे के घर दुर्भाग्यपूर्ण घटना हो गई थी –
बच्चा मर गया था. कुज़्मा का अप्रिय ढंग से स्वागत किया गया. जब वह, मेन्शोव को दरवाज़े के पास छोड़कर, नौकरों वाले हॉल की
ओर आया, तो रोने से लाल हो गई आँखों वाली, गम्भीर, कारिन्दे की बीबी शान्तभाव से बैठी धब्बेदार
मुर्गी को बगल में दबाए बगिया से जा रही थी. जीर्ण-शीर्ण ड्योढ़ी में खंभों के बीच
ऊँचे बूट और खड़ी कॉलर वाली फूलदार कमीज़ पहने एक लम्बा आदमी खड़ा था, कारिन्दे की बीबी को देखकर वह चिल्लाया:
“अगाफ़्या,
ये तू उसे कहाँ ले जा रही है?”
“काटने के लिए,”
कारिन्दे की बीबी ने गम्भीरता और दुःख से जवाब दिया.
“दे,
मैं काट दूँगा.”
और वह बर्फ़घर की ओर जाने
लगा, बारिश की ओर ध्यान दिए बगैर, जो फिर से भर आए बादलों से बरसनी शुरू हो गई थी. बर्फघर का दरवाज़ा खोलकर
उसने देहलीज़ से कुल्हाड़ी उठाई और एक मिनट बाद एक हल्की-सी ‘खट्’
की आवाज़ सुनाई दी, बिना सिर की मुर्गी,
गर्दन का लाल ठूँठ लिए घास पर दौड़ने लगी, लड़खड़ाई
और गोल-गोल घूमने लगी, पंख फ़ड़फड़ाते हुए चारों ओर पर और खून
के फ़व्वारे उड़ाती. नौजवान ने कुल्हाड़ी फेंक दी और बगिया की ओर चला गया और कारिन्दे
की बीबी मुर्गी उठाकर कुज़्मा के पास आई :
“तुझे क्या चाहिए?”
“बगीचे के बारे में,”
कुज़्मा ने कहा.
“फ़्योदर इवानिच का इंतज़ार
कर.”
“वह कहाँ है?”
“अभी खेत से आ जाएगा.”
कुज़्मा नौकरों वाले हॉल की
खुली खिड़की के पास इंतज़ार करने लगा. उसने अन्दर झाँका और आधे अंधेरे में भट्टी,
पट्टियों का पलंग, मेज़ और एक छोटा-सा लम्बा टब
खिड़की के निकट की बेंच पर देखा – छोटा-सा ताबूत था, जिसमें
मृत बालक लेटा था : बड़ा, करीब-करीब नंगा सिर, नीला नन्हा चेहरा...मेज़ के पीछे एक मोटी अन्धी लड़की बैठी थी, और लकड़ी की बड़ी चम्मच से कटोरी में से दूध में डूबे डबल रोटी के टुकड़े खा
रही थी. मक्खियाँ, छत्ते में मधुमक्खियों के समान, उसके ऊपर भिनभिना रही थीं, मगर अन्धी सीधी बैठी हुई,
किसी मूर्ति की तरह पुतलियाँ साँझ के झुटपुटे पर गड़ाए, खाती जा रही थी, खाती जा रही थी. कुज़्मा को बड़ा डर
लगा, वह दूर हट गया. ठण्ड़ी हवा के झोंके आ रहे थे, बादलों के कारण और भी अन्धेरा हो गया था. आँगन के बीचोंबीच दो खम्भों पर
एक शहतीर टँगी थी, और शहतीर पर किसी देवचित्र की तरह एक बड़ी
लोहे की तख़्ती लटक रही थी : मतलब, रातों में जब डरते थे,
उसे बजाया करते थे. आँगन में कई दुबले शिकारी कुत्ते पड़े थे. करीब
आठ साल का बालक उनके बीच भाग रहा था, अपने सफ़ेद बालोंवाले
सिर पर बड़ी-सी काली टोपी पहने, निस्तेज छोटे भाई को गाड़ी में
घुमा रहा था. गाड़ी लगातार चर्र-चूँ कर रही थी. घर धूसर, भारी-भरकम
और, शायद इस झुटपुटे में जहन्नुम की तरह बोझिल, उकताहट भरा था. “कम-से-कम बत्तियाँ ही जला देते!” कुज़्मा ने सोचा. वह बहुत
ज़्यादा थक गया था, उसे लगा कि उसे शहर से निकले करीब एक साल
हो गया है...
शाम और रात उसने बगिया में
काटी. कारिन्दा घोड़े पर खेत से लौटा, गुस्से से बोला
कि “बाग तो बहुत पहले ही ठेके पर दिया जा चुका है,” और रात
काटने की प्रार्थना पर सिर्फ बेशर्मी से आश्चर्यचकित हो गया : “वैसे है तू
अकलमन्द!” वह चीख़ा, “अच्छी सराय मिल गई! बहुत-से ऐसे भटकते
हैं आजकल...मगर उसने दया दिखाते हुए कुज़्मा को बगीचे में बने हम्माम में सोने की
इजाज़त दे दी. कुज़्मा ने मेन्शोव को पैसे दिए और घर के सामने से नींबुओं के पेड़ों
के गलियारे के दरवाज़े की ओर चल पड़ा. अँधेरी, खुली खिड़कियों
से, मक्खियों से बचाने वाली लोहे की जालियों के पीछे से,
पियानो गरज रहा था, जिसे मात कर रही थी एक
शानदार आवाज़, ख़ूबसूरत आलाप लेती हुई, जो
न तो इस शाम के, न ही हवेली के अनुरूप थे. ढलवाँ गलियारे की
गन्दी रेत पर, जिसके दूसरे छोर पर बादलों भरा आसमान यूँ
टिमटिमा रहा था जैसे दुनिया के अंतिम किनारे पर हो. हौले-हौले
कुज़्मा की ओर आ रहा था गहरे भूरे रंग वाला एक किसान, हाथों
में बाल्टी लिए, कमरबन्द बाँधे, बिना
टोपी के और भारी बूट पहने.
“श्,
श्”, संगीत को सुनते हुए मज़ाक के-से अन्दाज़
में वह चलते-चलते बोला, “रियाज़ कर रहे हैं.”
“कौन रियाज़ कर रहा है?”
कुज़्मा ने पूछा.
किसान ने सिर उठाया और ठहर
गया.
“हाँ,
ज़मीन्दार का बेटा, और कौन?” उसने ख़ुशी से खूब तुतलाते हुए कहा, “कहते हैं,
सातवाँ साल है!”
“ये कौन-सा वाला है,
जिसने मुर्गी को मारा था. वो!”
“नहीं,
दूसरा...ये तो कुछ भी नहीं. कभी-कभी तो जो चीख़ना शुरू करता है: “आज तू,
कल मैं!” बस कयामSत!
कयामSत!”
“शायद सीख रहा
है?”
“अच्छा है ये सीखना!”
यह सब यूँ लग रहा था कि बड़ी
सहजता से बातों-बातों में, गहरी-गहरी साँसे लेते
हुए कहा गया हो, मगर ऐसी ज़हरीली हँसी और ऐसी तुतलाहट के साथ कि
कुज़्मा ने बड़े गौर से उसकी ओर देखा. बेवकूफ़ जैसा था. बाल सीधे, गोलाई में कटे हुए. चेहरा बड़ा नहीं था, कोई ख़ास बात नहीं
थी उसमें, प्राचीन रूसी, सूज़्दल वालों जैसा.
बूट भारी-भरकम, शरीर दुबला-पतला और लकड़ी जैसा. आँखें बड़ी-बड़ी,
उनींदी पलकों के नीचे बाज़ की आँखों जैसी. पलकें झुकाए तो बेवकूफ़ लगे,
पलकें उठाए – तो कुछ डरावना-सा लगे.
“तू बगीचे में बैठता है?”
कुज़्मा ने पूछा.
“बगीचे में! और कहाँ बैठूँगा?”
“और तेरा नाम क्या है?”
“मेरा?
अकीम...और तेरा?”
“मैं बगीचा ठेके पर लेना चाहता
था.”
“लो,
सुन लो...मिल गया!”
और अकीम व्यंग्य से सिर हिलाकर
अपने रास्ते चला गया.
हवा अधिकाधिक तीव्रता से बह
रही थी, चमकीले हरे पेड़ों से बूंदें उड़ाती हुई.
बगिया के पीछे, कहीं नीचे, तूफ़ान और बिजली की काफ़ी लम्बी, ज़ोरदार कड़क सुनाई दे रही
थी, हल्का नीला साँझ का झुटपुटा गलियारे को हल्का-सा रोशन कर
रहा था चारों ओर पंछी गा रहे थे. बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे अविरत उनींदेपन
में वे कैसे इतना दिल लगाकर, इतनी मिठास से और इतने तीव्र स्वर
में गा सकते हैं, इस बोझिल, सीसे जैसे मेघाच्छादित
आकाश के नीचे, हवा के कारण झुक रहे पेड़ों के बीच, घनी गीली झाड़ियों में अपने सुर बिखेर सकते हैं. मगर इससे भी ज़्यादा समझ में
यह नहीं आ रहा था कि ऐसी हवा में चौकीदार अपनी रातें कैसे गुज़ारते हैं, सड़ी हुई छपरी पर पड़े फूस के नीचे नम घास पर वे कैसे सोते हैं...
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