Friday, 19 July 2019

Gaon - 3.02




3.2

मीस और दुर्नोव्का, जैसा कि अक्सर पास-पास बसे हुए गाँवों के साथ होता है, हमेशा दुश्मनी, परस्पर शक के माहौल में रहते थे. मीसवाले दुर्नोव्कावालों को डाकू और भिखारी कहा करते और दुर्नोव्कावाले मीसवालों को. दुर्नोव्का था मालिकका और मीस में रहते थे अद्नाद्वोर्की’ (हम आँगन वाले). दुश्मनी और झगड़ों से दूर थी सिर्फ अद्नाद्वोर्का’. छोटे कद की, दुबली-पतली, सलीकेदार, वह बड़ी ज़िन्दादिल, बातचीत में प्यारी और संयत, चौंकन्नी थी. वह मीस और दुर्नोव्का के हर परिवार को अपने परिवार की तरह जानती थी, गाँव की हर छोटी-से-छोटी घटना के बारे में सबसे पहले हवेली को सूचित किया करती. उसकी ज़िन्दगी को भी सब अच्छी तरह जानते थे. वह कभी भी, किसी से कुछ न छिपाती, सुकून से और सादगी से दूल्हे के बारे में और दुर्नोव्का के बारे में बताती.
“क्या करते!” वह हल्की-सी आह भरते हुए कहती. “ग़रीबी ऐसी ज़ालिम थी, फ़सल आने पर भी रोटी नसीब न होती. दूल्हा, सच कहती हूँ, मुझसे प्यार करता था, मगर कोई चारा न था. मालिक ने मेरे लिए पूरी तीन गाड़ियाँ भर के जई भेजी थी. “क्या करें?” मैंने मरद से कहा, “ज़ाहिर है, चली जा,” उसने कहा. जई लेने गया, एक, एक माप से उठाता, और आँखों में थे आँसू टप, टप, टप, टप....”
दिन में वह एक भी पल रुके बिना काम करती, रातों में कपड़ों की मरम्मत करती, सिलाई करती, रेल की पटरियों से लकड़ी के पटिए चुराती. एक बार, देर शाम को, कुज़्मा तीखन इल्यिच के पास जा रहा था, वह चढ़ाई पर आया, और डर के मारे मानो जम गया : अँधेरे में डूबे हुए खेतों के ऊपर, डूबते सूरज की थोड़ी-सी सुलगती रोशनी में कुज़्मा की ओर कोई भारी-भरकम, काली चीज़ हौले-हौले बढ़ी...
“कौन है?” लगाम खींचते हुए वह कमज़ोर आवाज़ में चीख़ा.
“ओह!” वह भी, जो इतनी फुर्ती और हौले से आसमान में बढ़ रहा था, कमज़ोर आवाज़ में, डर के मारे चीका, और चरमराते हुए बिखर गया.
कुज़्मा सँभला और उसने फ़ौरन अँधेरे में अद्नाद्वोर्का को पहचान लिया. वही उसकी ओर अपने नंगे, फुर्तीले पैरों से दौड़ी आ रही थी : झुकी हुई, लकड़ी की दो पट्टियाँ उठाए, उनमें से, जिन्हें सर्दियों में रेल की पटरियों के किनारे-किनारे लगाया जाता है, बर्फ़ के ढेरों को रोकने के लिए. और, सँभलकर, हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ फ़ुसफ़ुसाई :
“आपने मुझे डरा दिया, मैं तो मर ही गई थी. रात को भागो, डर के मारे काँपते हुए, मगर करें क्या? पूरा गाँव इन्हीं से गर्माहट पाता है, इसी से तो ज़िन्दा है...”
मगर कुज़्मा का नौकर कोशेल एकदम उबाऊ आदमी था. उससे बातें करने के लिए कुछ था ही नहीं, और वह भी बातूनी नहीं था. अधिकांश दुर्नोव्कावासियों की तरह वह भी सिर्फ पुरानी साधारण-सी कहावतें दुहराया करता, उसी बात पर ज़ोर देता, जो सबको सदियों से मालूम था. मौसम ख़राब होता, और वह आसमान की ओर देखता :
“मौसम ख़राब हो रहा है. अब फ़सल के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है बारिश.”
अगर कोई खेत में दो बार हल चलाता तो वह कहता :
“दो बार न जोतेगा – गेहूँ न पायेगा. बड़े बूढ़े ऐसा कहा करते थे.”
कभी वह फ़ौज में काम कर चुका था, कॉकेशस में रहा था, मगर फ़ौजीपन ने उस पर अपना कोई निशान न छोड़ा था. वह कॉकेशस के बारे में कुछ भी न बता पाता, सिवाय इसके कि वहाँ पहाड़ पर पहाड़ है, कि वहाँ धरती से ग़ज़ब के गरम और अजीब से पानी के सोते फ़ूटते हैं, “भेड़ को उसमें रखो. एक मिनट में पक जाएगी, मगर टाइम पर न निकालो, फिर कच्ची हो जाएगी,,,” और उसे इस बात का ज़रा भी ग़ुरूर नहीं था कि उसने दुनिया देख रखी है, वह तो उन लोगों को बड़ी शक की नज़र से देखता, जो बाहर घूम आए थे : क्योंकि लोग दो ही वजह से भटकते हैं : या तो मजबूरी में या फ़िर ग़रीबी की वजह से, एक भी अफ़वाह पर यकीन न करता. “सब बकवास करते हैं”, मगर इस बात पर यकीन था उसे, और वह कसम खाकर कहता कि कुछ ही रोज़ पहले बसोवो गाँव के बाहर झुटपुटे में गाड़ी का एक पहिया लुढ़कते हुए आया – चुडैल थी वह, और एक किसान ने, जो बेवकूफ़ नहीं था, इस पहिए को पकड़ लिया, अपना कमरबन्द कमानी में डालकर उसे बाँध दिया.
“अच्छा, फिर क्या हुआ?” कुज़्मा ने पूछा.
“और क्या?” कोशेल ने जवाब दिया, “वह चुडैल सुबह उठी, देखती है – कमरबन्द उसके मुँह और पीछे से निकल रहा है, पेट पर गाँठ बन्धी हुई...”
“और उसने उसे खोला क्यों नहीं?”
“ज़ाहिर है, गाँठ पर सलीब का निशान बनाया गया था.”
“ऐसी बकवास पर यकीन करते हुए तुझे शरम नहीं आती?”
“मुझे क्यों आने लगी शरम? लोग झूठ बोलते हैं और मैं भी...”
कुज़्मा को बस उसका गाना सुनना अच्छा लगता था. अँधेरे में खुली हुई खिड़की के पास बैठे हों, कहीं भी ज़रा-सी भी रोशनी नहीं, घाटी के उस पार गाँव कुछ काला होता जा रहा है, ख़ामोशी ऐसी कि नुक्कड़ वाले जंगल में सेब का गिरना भी सुनाई दे, वह धीरे-धीरे आँगन में घूमता है अपना डण्डा लिए और उनींदे शान्त भाव से ऊँचे सुर में गाता है, “चुपकर, चिड़िया कैनरी...” सुबह तक वह हवेली पर पहरा देता, दिन में सोता रहता, काम करीब-करीब था ही नहीं : दुर्नोव्का का कामकाज इस साल तीखन इल्यिच ने जल्दी ही निपटा लिया था, मवेशीख़ाने में बस एक घोड़ा और एक ही गाय छोड़ी थी.                    
साफ़ दिनों के स्थान पर आए ठण्ड़े, नीले-धूसर, ख़ामोश दिन. नंगे बाग में पंछी सीटियाँ बजाने लगे, देवदार के पेड़ों पर टिटहरी टिट्-टिट् करने लगी, मोम जैसे पंखों वाले और अन्य कोई सुस्त-से छोटे-छोटे पंछी प्रकट हो गए जो एक जगह से दूसरी जगह झुण्डों में उड़ते फ़िरते, खलिहान में, जिसकी ज़मीन से चमकीली हरी कोंपलें झाँक रही थीं, कभी-कभी कोई ख़ामोश नन्हा-सा पंछी खेत में घास की पात पर अकेला बैठा रहता...दुर्नोव्का के पीछे के बगीचों में अंतिम आलू खोदकर निकाले जा रहे थे. अँधेरा जल्दी होने लगा, हवेली में लोग कहते, “आजकल गाड़ी कितनी देर से गुज़रती है,” जबकि गाड़ियों के आने-जाने के समय में ज़रा-सी भी तब्दीली नहीं हुई थी...कुज़्मा खिड़की के पास बैठकर दिनभर अख़बार पढ़ा करता, बसन्त की अपनी कज़ाकोवो की यात्रा अकीम से हुई बातचीत दर्ज करता, पुरानी हिसाब की कॉपी में टिप्पणियाँ लिखता, वह जो गाँव में देखता और सुनता...सबसे अधिक उसका ध्यान आकर्षित किया सेरी ने.
सेरी गाँव का सबसे ज़्यादा ग़रीब और निकम्मा किसान था, अपनी ज़मीन वह किराए पर देता, काम की जगह पर टिकता नहीं था. घर में भूखा और ठण्ड में बैठा रहता, मगर हर वक्त यही सोचता रहता कि कहीं से मुफ़्त में पीने को मिल जाए, हर जलसे में वह जाता, एक भी शादी, एक भी बप्तिज़्मा, एक भी अन्त्य यात्रा वह न छोड़ता.. कोई भी सौदा उसके बगैर पूरा न होता : वह न केवल अपने गाँव के, बल्कि पड़ोसियों के ख़रीद-फ़रोख़्त और विनिमय के कागज़ात बनवाने में हिस्सा लेता. सेरी (सेरी का अर्थ है – धूसर रंग का – अनु.) का रूप-रंग उसके नाम को सार्थक करता था : धूसर बालों वाला, दुबला-पतला, मँझोले कद का, कन्धे झुके हुए, कोट बहुत ही छोटा, जगह-जगह से फ़टा हुआ, धब्बेदार, फ़ूस के फ़टे हुए जूते जिनके तलवे रस्सी से बाँधे गए थे, हैट के बारे में तो कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं थी. वह कभी भी हैट नहीं उतारता, पाइप को मुँह से अलग न करता, झोंपड़ी में ऐसे अन्दाज़ में बैठता जैसे किसी चीज़ का इंतज़ार कर रहा हो. मगर उसकी राय में, किस्मत उस पर कभी मेहेरबान हुई ही नहीं. कभी ढंग का काम मिला ही नहीं, और बस. मगर वह छोटे-मोटे कामों में अपना समय न गँवाता. हर कोई उसे फ़टकारने की कोशिश करता...
“ज़बान का क्या, वह तो बिन हड्डी की है,” सेरी कहता. “पहले तू मेरे हाथ में काम दे, फिर बकवास कर.”
ज़मीन उसके पास काफ़ी थी – तीन दिस्यातिना (दिस्यातिना – 1.09 हेक्टेयर – अनु.) मगर उस पर टैक्स दस गुना बढ़ गया. और सेरी के हाथ ढीले पड़ गए : “मजबूरी में देना पड़ता है, ज़मीन को : उसे, धरती माँ को, सलीके से रखना चाहिए, मगर यहाँ कहाँ का सलीका!” वह ख़ुद आधी ज़मीन में ही बुआई करता, मगर वह भी फ़सल उगते ही मिट्टी के मोल बेच देता. “बुरे के लिए अच्छा चला गया...” मगर फ़िर भी अपनी सफ़ाई देते हुए कहता : पकने का इंतज़ार करके तो देखो.
“फ़िर भी, पकने का इंतज़ार करना बेहतर होता...” याकव एक ओर को देखते हुए और उपहास के साथ हँसते हुए बड़बड़ाता.
“बेहतर होता!” वह खिखियाता. “तेरे लिए बकवास करना आसान है : लड़की की शादी कर दी, छोटे का ब्याह भी कर दिया. मेरी ओर देख, कोने में देख, बैठे हैं...बच्चे. पराए तो नहीं हैं. उनके लिए बकरी पाल रहा हूँ, सुअर को दाना खिलाता हूँ...वे भी दाना-पानी चाहते ही हैं.”
“ख़ैर, बकरी का, मिसाल के तौर पर, यहाँ कोई कुसूर नहीं है,” याकव गुस्से से प्रतिवाद करता. “ये तो, मिसाल के तौर पर, हमारे दिमाग़ में छाई रहने वाली वोद्का और पाइप का कुसूर है...पाइप और वोद्का...”
पड़ोसी से बिना बात झगड़ा न बढ़ाते हुए वह सेरी से दूर चला जाता. और सेरी इत्मीनान से कामकाजी अंदाज़ में पीछे से जवाब देता :
“शराबी, भैया, सोने के बाद ठीक हो जाएगा, बेवकूफ़ कभी भी नहीं.”

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