2.1
ज़िन्दगी
भर कुज़्मा पढ़ने और लिखने के सपने देखता रहा.
कविताओं
की क्या बात है! कविता से वह सिर्फ ‘दिल बहलाता था’. उसका
दिल यह बताना चाहता था कि वह कैसे
धीरे-धीरे ख़त्म हो रहा है,
निर्धनता और अपनी
साधारणता के कारण भयानक उस रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का अभूतपूर्व निर्ममता से वर्णन
करना चाहता जो उसे अपंग बना रही थी,
“बिना फलों वाला अंजीर का
पेड़” बना रही थी.
अपनी
ज़िन्दगी के बारे में सोचते हुए उसने स्वयम् को दोष भी दिया और सही भी ठहराया.
क्या
है, आख़िर,
उसकी कहानी – उन सभी
रूसियों की कहानी है,
जिन्होंने स्वयम् ही
शिक्षा प्राप्त की है. वह उस देश में जन्मा जहाँ दस करोड़ से अधिक निरक्षर हैं. वह
काली बस्ती में बड़ा हुआ,
जहाँ अभी तक मुष्टियुद्ध में मरते दम तक
मारते हैं, जंगलीपन और असभ्यता के बीच. वर्णमाला और अंकों का
ज्ञान उसे और तीखन इल्यिच को ‘गलोशों’
की मरम्मत करने वाले
पड़ोसी बेल्किन ने दिया;
वह भी इसलिए कि उसके पास
कभी काम ही नहीं होता था,
काली बस्ती में कहाँ से ‘गलोश’
होने लगे!...कि किसी की
कनपटी पर मुक्का जमाना हमेशा अच्छा लगता है और हमेशा तो झोंपड़ी के बाहर यूँ ही
ढीले-ढाले, अपना उलझे बालों वाला झबरा सिर झुकाए और सूरज के सामने
किए, नंगे पैरों के बीच धूल में बार-बार थूकते हुए बैठा
नहीं जा सकता था. मतोरिन की बाज़ार वाली दुकान में भाइयों ने लिखन-पढ़ना सीखा, कुज़्मा किताबों की ओर भी आकर्षित होने लगा, जो उसे बाज़ार वाले, आज़ाद
ख़याल और सिरफ़िरे,
एकार्डियन बजाने वाले
बूढ़े बलाश्किन ने दी थीं. मगर दुकान में पढ़ाई कहाँ होती! मतोरिन अक्सर चिल्लाया
करता : “मैं तेरे कान पे मुक्का मारूँगा, शैतान, तेरे उन गुनाहों के लिए!”
वहीं
कुज़्मा ने लिखना भी शुरू कर दिया,
शुरुआत की एक व्यापारी
की कहानी से,
जो भीषण तूफ़ान में, रात को,
मूरोम के जंगलों से गुज़र
रहा था, रात काटने के लिए डाकुओं के बीच फँस गया और जिसे मार
डाला गया. कुज़्मा ने आवेशपूर्ण ढंग से उसकी मृत्यु पूर्व प्रार्थनाओं का, विचारों का, अपने ‘पापी तथा इतनी जल्दी समाप्त होने वाले’ जीवन पर प्रकट किए गए दुःख का वर्णन किया...मगर बाज़ार
ने उस पर निर्ममता से ठण्डा पानी उँडेल दिया:
“आह, बेवकूफ़ कहीं का, ख़ुदा
माफ़ करे! ‘जल्दी!’
उस मोटे शैतान को तो
पहले ही मर जाना चाहिए था! और भला,
तुझे कैसे पता चला कि वह
क्या सोच रहा था,
उसे तो मार डाला था न?”
फिर
कुज़्मा ने कल्त्सोव की शैली में बूढे ‘नाइट’
का गीत लिखा जो बेटे को
अपना विश्वासपात्र घोड़ा सौंप रहा है. “उसने अपनी जवानी में मुझे ढोया!” गीत में ‘नाइट’
ने उद्गार व्यक्त किए.
“ये
बात है!” उससे कहा गया. इस घोड़े की उम्र कितनी थी? आह, कुज़्मा,
कुज़्मा! तू कोई काम की
बात लिखता, जैसे लड़ाई के बारे में, मिसाल
के तौर पर...”
और
कुज़्मा बाज़ार की फ़रमाइश पर वह लिखने लगा, जिसके
उस समय बाज़ार में चर्चे हो रहे थे,
रूसी-तुर्की युद्ध के
बारे में : उस बारे में,
जैसे –
सन् सतहत्तर में
लड़ाई के बारे में सोचा,
बढ़ाई अपनी सेना उसने
रूस को जीतने वह चला.
और
कैसे यह सेना –
अपनी बेहूदी टोपियों में
छिप-छिपकर आई ज़ार-तोप के पास...
बड़ी
पीड़ा के बाद उसे यह एहसास हुआ कि कितनी बेवकूफ़ी और नासमझी थी इन पंक्तियों में और
कैसी फ़ूहड़ थी वह भाषा,
और पराई टोपियों के लिए
यह रूसी नफ़रत!
दुकान
छोड़कर और मौत को प्यारी हो चुकी माँ की चीज़ें बेचकर उन्होंने व्यापार करना शुरू कर
दिया. अपने पैतृक शहर में वे अक्सर आया करते और कुज़्मा पहले ही की तरह बलाश्किन से
दोस्ती बनाए रहा,
वे किताबें जो बलाश्किन
उसे देता था,
जिनका ज़िक्र करता, बड़े चाव से पढ़ता. मगर बलाश्किन से शिलेर के बारे में
बहस करते हुए वह बड़ी शिद्दत से उससे ‘बाजा’
उधार माँगने के बारे में
सोचा करता. मगर ‘धुआँ’
से जोश में आकर उसने
दृढ़ता से कहा कि “जो अक्लमन्द मगर अनपढ़ है, उसके
पास शिक्षा के बिना ही बहुत ज्ञान है.” कल्त्सोव की कब्र पर जाकर उसने बड़ी
प्रसन्नता से उसके ऊपर खुदे गलत-सलत लेख की नकल उतारी : “इस स्मारक के नीचे दफ़न है
वरोनेझ के व्यापारी और कवि अलेक्सी वसील्येविच कल्त्सोव का जिस्म जिसे सम्राट की
मेहेरबानी से इनाम दिया गया.
“तालीमा
याफ़्ता बगैर पढ़े ख़ुद-ब-ख़ुद”
बूढ़ा, भारी-भरकम,
दुबला, गर्मियों और जाड़ों में अपना हरा हो चुका कोट और गरम
टोपी न उतारने वाला,
बड़े, सफ़ाचट चेहरे और टेढ़े-मेढ़े मुँह वाला बलाश्किन अपनी कटु
बातों, बूढ़ी गहरी आवाज़, भूरे
गालों पर नज़र आते चाँदी जैसे दाढ़ी के ठूँठों और फूली हुई टेढ़ी, चमकीली हरी आँख़ के कारण, जो
उसके टेढ़े मुँह की दिशा में देखा करती,
बड़ा डरावना लगता था.
कितना गरजा था वह एक दिन कुज़्मा की “बिना शिक्षा के शिक्षित” वाली बात सुनकर, कैसी आग बरसाई थी इस आँख से, कैसे सिगरेट का कागज़ फेंक दिया था जिसमें वह मछली वाले
डिब्बे में रखा हुआ तम्बाकू भर रहा था!
“गधे
के जबड़े! क्या बकता है! कभी सोचा भी है कि हमारे पास इस ‘बिना शिक्षा के शिक्षित’ का
मतलब क्या है?”
और
फिर से सिगरेट उठाकर गहरी आवाज़ में गरजता रहा:
“ऐ
मेहेरबान ख़ुदा! पूश्किन को मार डाला,
लेर्मन्तोव को मार डाला, पीसारेव को डुबाकर मार दिया, रिलेयेव को दबा दिया...दस्तयेव्स्की को सूली पर घसीट
कर ले गए, गोगल को पागल कर दिया...और शेव्चेन्का? और पलिझायेव? तू
कहेगा, सरकार ज़िम्मेदार है? हाँ, जैसा नौकर वैसा मालिक, जैसा
तेन्का वैसी टोपी! ओह,
क्या दुनिया में कोई और
मुल्क है ऐसा,
हैं ऐसे लोग, जिस पर तीन बार ख़ुदा की मार पड़े?”
बेचैनी
में अपने लम्बे कोट के बटन बार-बार खोलते, बन्द
करते, नाक-भौं चढ़ाए, परेशान
कुज़्मा ने खींसे निपोरते हुए जवाब में कहा :
“”ऐसे
लोग! महान लोग,
न कि ‘ऐसे लोग’
कहने की इजाज़त दीजिए.”
“तमगे
बाँटने की हिम्मत न कर,”
फिर से बलाश्किन चीखा.
“नहीं
जी, मैं तो करूँगा! क्योंकि ये लेखक तो इन्हीं लोगों की
सन्तानें हैं. प्लतोन करतायेव – मानी हुई मिसाल है इन्हीं लोगों की.”
“तो
येरोश्का क्यों नहीं?
लुकाश्का क्यों नहीं? मैं,
भाई, अगर अदब को चाट जाऊँ तो हर ख़ुदा के लिए जूता पाऊँ.
करतायेव ही क्यों,
रज़ुवायेव और कलुपायेव
क्यों नहीं, दूसरों का खून चूसने वाली मकड़ी क्यों नहीं, रिश्वतखोर पादरी क्यों नहीं, बेईमान सरकारी नौकर क्यों नहीं, करामाज़व,
अब्लोमव क्यों नहीं, ख्लेस्ताकव और नोज़्द्रेव क्यों नहीं, और दूर क्यों जाएँ, तेरा
कमीना भाई क्यों नहीं?”
“प्लतोन
करातायेव...”
“जुएँ
खा गईं तेरे करातायेव को! कोई आदर्श नहीं देखता मैं उसमें!”
“और
रूसी शहीद, सन्त,
फ़कीर, ईसा के प्रेम में पागल झक्की सिरफ़िरे, धार्मिक आन्दोलनकारी?”
“क्या
SSS? और कलिज़ेई,
धार्मिक अभियान, लडाइयाँ मार्धिक (धार्मिक) असंख्य सम्प्रदाय? लूथर,
अगर बात चले तो? नहीं,
गुंजाइश ही नहीं है तेरे
पास! मेरा दाँत तू यूँ ही मुफ़्त में नहीं तोड़ सकता!”
“हाँ, एक बात करनी होगी, पढ़ना
होगा! मगर क्या,
कब, कहाँ?”
पूरे
पाँच साल बीत गए व्यापार में – और वह भी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल! शहर में आना भी
बड़ा ख़ुशगवार मालूम होता. आराम,
परिचित, बेकरी और लोहे की छतों की ख़ुशबू, तर्गोवाया रास्ते पर बनी पुलिया. चाय, सफ़ेद डबल रोटी, शराबख़ाने
‘कार्स’
में पर्शियन मार्च का
संगीत...दुकानों के फ़र्श पर चायदानियों से टपकी हुई चाय, रुदाकोव के दरवाज़े पर बटेरों की मशहूर लड़ाई, मछलियों की दुकान से आती गन्ध, साग की,
रमानोव की घटिया तम्बाकू
- कुज़्मा को आते देखकर बलाश्किन की भली और डरावनी मुस्कुराहट...फिर – गरजना और स्लव्यानोफिलों
को बद्दुआएँ देना,
बेलिन्स्की और भद्दी
गालियाँ, एक-दूसरे पर बेतरतीब और भयानक नामों की, उद्धरणों की भरमार...और अंत में अत्यन्त निराशाजनक
सारांश : “अब तो बस,
सीधे-सीधे कोई मौका ही
नहीं है, पूरी रफ़्तार से जा रहे हैं, एशिया!”
बूढ़ा भिनभिनाया और अचानक इधर-उधर देखकर आवाज़ नीची करके बोला :
“सुना
तूने? साल्तिकोव,
सुनते हैं, मर रहा है. आख़िरी! ज़हर दे दिया, कहते हैं...” और सुबह – फिर गाड़ी, स्तेपी,
कीचड़ या उमस, भागते हुए पहियों के हिचकोलों के बीच
पीड़ादायक-तनावपूर्ण ढंग से कुछ पढ़ना...स्तेपी के विस्तार का बड़ी देर तक चिन्तन, मन-ही-मन में किसी कविता का मीठी-मीठी पीड़ा के साथ
गायन, जो आमदनी के ख़यालों या तीखन के साथ हुई झड़पों से
रुक-रुक जाता...रास्ते की मदमस्त करने वाली ख़ुशबू, धूल और
डामर की...पिपरमिन्ट के बिस्कुटों की ख़ुशबू, और
गाड़ी के सन्दूक में रखी बिल्लियों की खालों की दमघोटू बदबू, सचमुच ही ये साल उसे झँझोड़ गए. दो-दो हफ़्तों तक न बदली
गई कमीज़ें, ठण्डा खाना, मुड़े
हुए जूतों. लहुलुहान एडियों के कारण आता लंगड़ापन, पराई
झोंपड़ियों और ड्योढ़ियों में गुज़ारी हुई रातें.
जब
आख़िरकार कुज़्मा इस जोखड़ से छिटक गया तो उसने ईश्वर को बहुत धन्यवाद दिया. मगर फिर
से किसी तरह रोटी के टुकड़े का इंतज़ाम तो करना ही था. बिना ना-नुकुर किए कुछ दिन
येल्त्स के निकट मवेशीख़ाने के मालिक के यहाँ काम करने के बाद वह वरोनेझ चला गया.
वरोनेझ में काफ़ी पहले उसे प्यार हो गया था, पराई
बीबी से सम्बन्ध हो गया था,
वहीं वह खिंचा जाता था.
करीब दस सालों तक वह वरोनेझ में मँडराता रहा, जहाँ
गेंहूँ बोरो में भरकर भेजा जाता था,
गेंहूँ के व्यापार के
बारे में थोड़ा-बहुत लिखता रहा अख़बारों में, दलाली
करता रहा, टॉल्स्टॉय के लेखों और श्चेद्रिन के व्यंग्यों में
अपनी रूह को सुकून देता रहा,
या यूँ कहिए कि झिंझोड़ता
रहा. इस ख़याल से लगातार पस्त होता रहा कि वह पतन की ओर बढ़ रहा है, पूरी ज़िन्दगी व्यर्थ हो गई है.
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