2.2
नब्बे
के दशक के आरंभ में बलाश्किन हर्निया से मर गया, इससे
कुछ ही पहले कुज़्मा उससे अन्तिम बार मिला था. कैसी थी यह मुलाकात!
“लिखना
होगा,” निराशा और कड़वाहट से एक ने कहा, “वर्ना खेत में उगे जंगली फूल जैसा मुरझा जाएगा...”
“हाँ, हाँ,”
दूसरा बुदबुदाया, अपनी मृतप्राय आँखों से उनींदी तिरछी नज़र डालते हुए
बड़ी मुश्किल से जबड़ा चलाते हुए,
सिगरेट वाले कागज़ में
तम्बाकू न भर सकते हुए. “कहते हैं : हर घण्टे पढ़, हर
घण्टे सोच...चारों ओर देख हमारे हर दुर्भाग्य और कमीनेपन पर...”
फिर
शरमाकर हँस पड़ा,
सिगरेट एक ओर को रख दी
और मेज़ की दराज़ में कुछ ढूँढ़ने लगा.
“ये”, किन्हीं पुराने, जीर्ण-शीर्ण
कागज़ों और अख़बारी कतरनों के गट्ठे में कुछ ढूँढ़ते हुए बड़बड़ाया. “ये, यहाँ,
बढ़िया ख़ज़ाना है...मैं
ज़िन्दगी भर पढ़ता रहा...कतरनें इकट्ठा करता रहा, कुछ ‘नोट’
करता रहा...मर जाऊँगा, तुझे ज़रूरत पड़ेगी, ख़तरनाक
जानकारी है, रूसी ज़िन्दगी के बारे में, मगर
थोड़ा ठहर, मैं तेरे लिए कोई कहानी ढूँढ़ता हूँ...”
मगर
वह ढूँढ़ता रहा,
ढूँढ़ता रहा, और पा न सका, चश्मा ढूँढ़ने
लगा, आवेश में जेबें टटोलने लगा, और हाथ
झटक दिया, झटककर,
चिड़चिड़ेपन से सिर हिलाने
लगा :
“आह, नहीं,
नहीं, अभी तो तू इसे छूने की भी हिम्मत न कर. अभी तू कमज़ोर
दिमाग़ वाला, अनपढ़ है. जितनी चादर है उतने ही पैर पसार. उस विषय के
बारे में, जो मैंने तुझे दिया था, सुखानोसव
के बारे में,
लिखा तूने? अभी नहीं?
तो, तू गधे का जबड़ा ही निकला. क्या विषय है?”
“गाँव
के बारे में लिखना चाहिए,
लोगों के बारे में,” कुज़्मा ने कहा, “ये, आप ख़ुद ही तो कहते हैं :रूस, रूस...”
“और
सुखानोसी क्या लोग नहीं है,
रूसी नहीं है? हाँ,
वह पूरा का पूरा
गाँव ही है,
हमेशा याद रख. चारों ओर देख : क्या, ये शहर
है, तेरी राय में? मवेशी
हर शाम सड़कों पर घूमते रहते हैं – धूल इतनी कि सामने वाले को नहीं देख सकते...और
तू – शहर! ”
सुखानोसी...कई
सालों तक कुज़्मा के दिमाग से बस्ती का वह घृणित बूढ़ा न निकल सका, जिसकी पूरी दौलत थी खटमलों के धब्बों वाला फूस भरा
गद्दा और बीबी का बढ़िया फ़ैशनेबुल कोट,
जिसे दीमक चाट गई थी. वह
भीख माँगता, बीमार रहता, भूखा
रहता, पचास कोपेक महीने के किराए पर नुक्कड़ वाली ‘गरम खाने की दुकान’ की
मालकिन के यहाँ रहता था और उसकी राय में अपनी विरासत को बेचकर अपनी ज़िन्दगी के
हालात को सुधार सकता था. मगर वह आँख की पुतली की तरह उनकी हिफ़ाज़त करता और, बेशक,
सिर्फ स्वर्गवासी पत्नी
के प्रति स्नेह की भावना की ख़ातिर ही नहीं : ये चीज़ें उसमें एक एहसास जगाती थीं कि
उसके पास सम्पत्ति है,
वह औरों की तरह नहीं.
उसे लगता कि यह भयानक रूप से महँगा है : “आजकल तो ऐसे फ़ैशनेबुल कोट दिखाई भी नहीं
देते.” उसे बेचने के ख़िलाफ़ वह नहीं था. मगर वह इतनी अनाप-शनाप कीमत माँगता की
ग्राहकों को काठ मार जाता...और कुज़्मा बस्ती की इस त्रासदी को अच्छी तरह समझता था.
मगर, जब वह सोचता कि उसे कागज़ पर कैसे उतारे, तो वह बस्ती की उलझी हुई ज़िन्दगी को फिर से जीना आरंभ
कर देता, बचपन की,
जवानी की यादों में जीने
लगता और इतना उलझ जाता कि सुखोनोसी को उसने अपनी कल्पना में गहरी पैंठ गई तस्वीरों
के नीचे दफ़न कर दिया,
अपनी आत्मा की आवाज़
सुनने की, वह सब,
जो उसके जीवन को पंगु
बना रहा था, कहने की माँग को बोझ तले दबाकर, उसने हाथ ढीले छोड़ दिए. इस जीवन में सबसे भयानक बात यह थी कि वह एकदम सीधा-सादा था, एकदम साधारण, अनबूझी
शीघ्रता से छोटे-छोटे टुकड़ों में परिवर्तित हो जाता था...उसके बाद भी यूँ ही फिज़ूल
गुज़र गए साल कुछ कम नहीं थे. वह वरोनेझ में मटरगश्ती करता रहा, और फिर,
जब प्रसूती ज्वर से वह औरत
मर गई, जिसके साथ वह रहता था, तब वह
येल्त्सा में निरर्थक घूमता रहा,
लिपेत्स्क में
मोमबत्तियों की दुकान पर काम करता रहा,
कसात्किन की जागीर में
क्लर्क का काम किया. टॉल्स्टॉय का भक्त बन गया, पूरे
साल उसने न सिगरेट पी,
न मुँह में वोद्का ली, न माँस खाया, न ‘स्वीकृति’
से जुदा हुआ, कॉकेशस में बस जाना चाहता था, ‘दुखोबोरों’
के साथ...मगर उससे काम
के सिलसिले में कीयेव जाने के लिए कहा गया. सितम्बर के अन्त के साफ़ दिन थे, हर चीज़ ख़ुशगवार, ख़ूबसूरत
थी : साफ़ हवा और सौम्य सूरज,
और रेल की दौड़ और खुली
हुई खिड़कियाँ,
और फूलों वाले वन, जो उनके सामने से गुज़र रहे थे...अचानक नेझिना के
स्टेशन पर कुज़्मा ने स्टेशन के द्वार के निकट बड़ी भीड़ देखी. भीड़ किसी को घेरे हुए
खड़ी थी और चीख़ रही थी,
उत्तेजित हो रही थी, बहस कर रही थी. कुज़्मा का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा और
वह उसकी ओर भागा. जल्दी-जल्दी धक्के मारता
हुआ वहाँ पहुँचा और उसने स्टेशन मास्टर की लाल टोपी देखी और लम्बे-तडंगे पुलिसवाले
का धूसर कोट देखा,
जो अपने सामने नम्रता, मगर अडियलपन से खड़े छोटे-मोटे स्वीत्का (स्वीत्का -
बिना कॉलर का ऊपरी वस्त्र – अनु.),
कड़े ऊँचे जूते, भूरी,
भेड़ की खाल की टोपियाँ
पहने तीन खोखलों(खोखल – उक्राइन के निवासी इस नाम से जाने जाते हैं – अनु.)
को लताड़ रहा था. ये टोपियाँ बड़ी मुश्किल से किसी चीज़ पर टिकी थीं – गोल सिरों पर, जिन पर पीप के कारण कड़ी हो चुकी पट्टियाँ बंधी थीं, सूजी हुई आँखों के ऊपर, फूले
हुए और निर्विकार चेहरों के ऊपर,
जिन पर हरी पीली खरोंचें
थीं, पपड़ी जमे हुए, काले
पड़ रहे घाव थे : खोखलों को पागल भेड़िये ने काटा था, उन्हें
कीएव के अस्पताल में भेजा जा रहा था और वे करीब-करीब हर स्टेशन पर कई-कई दिनों तक
बिना रोटी के और बिना पैसों के बैठे रहते. यह जानकर कि अभी उन्हें सिर्फ इसलिए
गाड़ी में नहीं बैठने दिया जा रहा है,
क्योंकि रेलगाड़ी को ‘एक्स्प्रेस’ कहा जा
रहा है, कुज़्मा अचानक तैश में आ गया और भीड़ में खड़े यहूदियों
की ‘शाबाश’
की चीखें सुनते हुए
दहाड़ने लगा, सिपाही पर पैर पटकने लगा. उसे रोक लिया गया, उस पर कार्रवाई हुई और अगली ट्रेन का इंतज़ार करते हुए
वह होश खोने तक पीता रहा.
खोखल
चेर्निगोव्स्काया प्रान्त से थे. यह प्रान्त उसकी कल्पना में हमेशा मद्धिम, धुँधली नीलाई लिए जंगलों वाले एक वीरान इलाके के रूप
में उभरता. ये आदमी,
जो पागल जानवर से दो-दो
हाथ करके आए थे,
उसे व्लदिमीर के ज़माने
की, आदिकालीन जीवन की, बँधुआ
कृषिदासों की ज़िन्दगी की याद दिला रहे थे. बेतहाशा पीते हुए, झगड़े-फ़साद के बाद थरथराते हाथों से जाम भरते हुए
कुज़्मा जोश में आ गया : “आह,
वह भी एक ज़माना था!”
सिपाही और स्वीत्का पहने इन दब्बू जानवरों पर आए क्रोध के कारण उसकी साँस रुकने
लगी. “संज्ञाहीन,
जंगली, उन पर ख़ुदा की मार पड़े...मदर – रूस, प्राचीन रूस! और नशीली ख़ुशी के आँसुओं और ताकत ने, जो हर तस्वीर को अस्वाभाविक रूप से विकृत कर रही थी, कुज़्मा की आँखों को धुँधला कर दिया. “और अहिंसा?” कभी-कभी वह याद करता और ठहाका लगाते हुए सिर हिलाता.
उसकी ओर पीठ करके मेज़ पर एक जवान,
साफ़-सुथरा अफ़सर खाना खा
रहा था; कुज़्मा प्यार भरी बेहयाई से कमर की ऊँचे सिलाई वाले
उसके ट्यूनिक (ट्यूनिक – छोटा चुस्त कोट – अनु.) को देखता रहा, जी चाहता था कि उसके पास जाए और उसे झँझोड़ दे. “और
जाऊँगा,” कुज़्मा ने सोचा, “और वह उछलेगा, चीखेगा,
सीधे - थोबड़े पे! ये लो
तुम्हारी अहिंसा...” फिर वह कीएव गया और काम को धता बताकर तीन दिन घूमता रहा, नशे में झूमते हुए और ख़ुशी से उत्तेजित, शहर में,
द्नेप्र पर बने खण्डहरों
में. और सोफिया चर्च में. प्रार्थना
के समय कई लोगों ने अचरज से एक दुबले-पतले, कंकाल
जैसे आदमी को देखा जो यारस्लाव की समाधि के सामने खड़ा था. उसकी वेशभूषा बड़ी
विचित्र थी : प्रार्थना समाप्त हो रही थी, लोग
बाहर जा रहे थे,
चौकीदार मोमबत्तियाँ
बुझा रहे थे,
मगर वह दाँत भींचे, सफ़ेद होती विरल दाढ़ी सीने पर झुकाए और वेदनापूर्ण सुख
से गहरी धँसी आँखों को बन्द किए चर्च के ऊपर गूँजती घण्टियों की भारी, संगीतमय आवाज़ सुन रहा था...और शाम को उसे मॉनेस्ट्री
के निकट देखा गया. वह लूले बालक के
पास बैठा था,
परेशान, दुःखी मुस्कुराहट से उसकी सफ़ेद दीवारों, छोटे-छोटे गुम्बदों पर जड़े सोने को शिशिर के आसमान में
देख रहा था. बच्चा बिन टोपी के था,
कन्धे पर हाथ से बुने
कपड़े का झोला लटकाए,
दुबले शरीर पर गन्दे
चीथड़े पहने, एक हाथ में उसने लकड़ी का कटोरा पकड़ रखा था, जिसकी तली पर एक कोपेक पड़ा था, और दूसरे से अपने विद्रूप, घुटने
तक नंगे, लूले,
अनैसर्गिक रूप से पतले, धूप के कारण काले हो चुके और सुनहरे रोयें वाले बायें
पैर को इधर-से-उधर यूँ ही रख रहा था,
मानो वह पराया हो, मानो वह कोई चीज़ हो. आसपास कोई भी न था, मगर उनींदेपन और बीमारों जैसे अन्दाज़ में अपने कटे हुए
बालों वाले, धूप और धूल के कारण कड़े हो चुके सिर को तिरछा करके, अपनी पतली,
छोटी-सी हँसली दिखाते
हुए और मक्खियों की ओर ध्यान न देते हुए, जो
उसकी बहती हुई नाक पर बैठ जाती थीं,
वह लगातार रिरिया रहा था
:
देखो,
देखो, अम्माओं,
कैसे हैं हम बदनसीब और ग़मज़दा!
आह,
ख़ुदा न करे अम्माओं
कोई भी हो ऐसा ग़मज़दा!
और
कुज़्मा ने सहमत होते हुए कहा,
“अच्छा, अच्छा! सही है.”
कीएव
में वह अच्छी तरह समझ गया कि अब कसात्किन के पास वह ज़्यादा दिन नहीं रह सकता, और आगे है – ग़रीबी, इन्सानियत
का ख़त्म होना. ऐसा ही हुआ. कुछ वकत तक वह और रुका रहा, मगर बहुत
ही शर्मनाक और कठिन परिस्थितियों में : हमेशा आधा नशे में, गन्दा,
हिचकियाँ लेता, तम्बाकू से सराबोर, बड़ी मुश्किल
से काम में अपनी अयोग्यता छिपाते हुए...इसके बाद वह और भी नीचे गिर गया : अपने शहर
में वापस आया,
अपने पास की पाई-पाई तक खर्च
कर डाली, पूरी सर्दियों में रात को खोदव की सराय के आम कमरे में
सोता रहा, दिन अव्देइच के शराबख़ाने में, बाबी बाज़ार में गुज़ारता रहा. इन पैसों में से बहुत कुछ
बेवकूफ़ी के शौकों में चला गया,
कविताओं की किताब छपवाने
में. फिर अव्देइच के यहाँ आने वालों के बीच घूमना पड़ा और उनके
मत्थे आधी कीमत में किताब पढ़नी पड़ी...यह तो कुछ भी नहीं; वह तो विदूषक बन गया! एक बार बाज़ार में आटे की दुकानों
के पास खड़ा-खड़ा एक आवारा को देख रहा था, जो देहलीज़
पर खड़े मोझूखिन के सामने मुँह बना रहा था. मोझूखिन, उनींदा, हास्यास्पद-सा, समोवार
में परिवर्तित हो रहे अपने चेहरे के प्रतिबिम्ब जैसा, बिल्ली
की ओर ध्यान दे रहा था,
जो उसके साफ़ किए गए ऊँचे
जूतों को चाट रही थी. मगर आवारा रुका नहीं. उसने अपने सीने पर मुक्का मारा, कन्धे ऊपर उठाए और भर्राई आवाज़ में घोषणा करने लगा :
जो उतरते नशे में है झूमता,
वह करता काम दिमाग़ से...”
और
कुज़्मा ने फूली हुई आँखें नचाते हुए अचानक जोड़ दिया :
आमोद-प्रमोद ज़िन्दाबाद,
रहे शराब ज़िन्दाबाद.
और
सामने से गुज़र रही शेरनी जैसे चेहरे वाली शहरी बुढ़िया ने रुककर, कनखियों से उसकी ओर देखा और छड़ी ऊपर उठाकर कड़वाहट से स्पष्ट
शब्दों में कहा :
“शायद
प्रार्थना भी इतनी अच्छी तरह से नहीं सीखी होगी!”
और
अधिक नीचे गिरने की गुंजाइश ही नहीं थी. मगर इसी से उसकी रक्षा हुई. उसे कुछ भयानक
दिल के दौरे पड़े और फ़ौरन उसने पीना बन्द कर दिया, दृढ़ता से
उसने सबसे आसान,
मेहनती ज़िन्दगी आरंभ करने
का, मिसाल के तौर पर बाग-बगीचे ठेके पर लेने का फ़ैसला कर लिया.
इस
ख़याल से उसे ख़ुशी हुई. “हाँ-हाँ,”
उसने सोचा, “बहुत पहले ही यह कर लेना चाहिए था!” और वाकई, ज़रूरत थी आराम की, ग़रीब, मगर साफ़-सुथरी ज़िन्दगी की. वह बूढ़ा भी हो रहा था. उसकी
दाढ़ी बिल्कुल सफ़ेद हो चली थी,
बीच की माँग निकले गए, सिरों पर घुँघराले बाल लोहे के रंग जैसे हो गए थे, उभरी हुई गालों की हड्डियों वाला काला चेहरा और भी ज़्यादा
दुबला हो गया.
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